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परिचय

अनादि काल से ऋषि मुनियों ने बड़े ही त्याग और कठिन तपस्या से ईश्वर को जानने की एवं स्वयं को जानने की अपनी अभिलाषा को शांत करने का प्रयास किया | अनेक साधनाए करने के बाद उन्होंने परम शक्ति (ईश्वर) के गुणों को जानने का प्रयास किया | उन्होंने अपनी कठिन तपस्याओं से आध्यात्मिक आविष्कारो के ज़रिये यह जान लिया कि हमारे शारीर में विभिन्न शक्तियों का वास शरीर में स्तिथ आध्यात्मिक चक्रों में रहता है जिन्हें साधना के ज़रिये जाग्रित कर उन शक्तियों को प्राप्त किया जा सकता है तथा मन के विकारों पर काबू करते हुए आध्यात्म पथ पर चलकर उस परमात्मा का दर्शन किया जा सकता है | उन्होंने ये भी जाना कि प्रत्येक प्राणी के अन्दर ईश्वर का वास है और उनमे चेतन्यता परमात्मा का अंश (आत्मा) के कारण है | उन्होंने बहुत सी साधनाओ की खोज की इसी में एक साधना मनुष्य को हर तरह के भेद भाव से ऊपर उठा कर सरलता से गृहस्थ में रहते हुए अपने धर्म के अनुसार अपने सभी दायित्वों को पूरा करते हुए आध्यात्म के सर्वोच्च पद् पर पहुचाने की है |

यह साधना बड़ी प्राचीन है, सर्वप्रथम महर्षि अष्टावक्रजी महाराज ने अपने प्रिय शिष्य राजा जनक को यह विद्या प्रदान कर ब्रह्म ज्ञान कराया था |

इस साधना का तरीका “अखिल भारतीय संतमत सत्संग” के गृहस्थ संतो द्वारा “आनंद योग” में बताया गया है (जो कि राज योग का ही परिकृष्ट और सरल रूप है ), यह मार्ग सेवक के सत्गुरु परम संत महात्मा श्री यशपाल जी महाराज द्वारा बताया गया है जिसे आपने भंडारे/सत्संगी कार्यक्रमो में भी बतलाया है |

आज के समय में, “अखिल भारतीय संतमत सत्संग” के संतो ने, एवं परम संत महात्मा श्री रमेश जी (पूज्य बड़े भैया जी- संरक्षक “यश रूप साधना पीठ”) ने इस प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान की ज्योति को उज्ज्वलित किया है | यशरूप साधना पीठ गृहस्थियों के लिए एक सुन्दर, सरल और क्रियात्मक मार्ग प्रस्तुत करता है | गृहस्थाश्रम में रहकर संसार के समस्त कार्य धर्मानुकूल, पूर्ण दक्षता के साथ करते हुए उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति की प्राप्ति तथा सतगुरु के ध्रुव पद तक पहुंचकर उस परब्रह्म में ल्यावस्था की उपलब्धि के साथ उसमे तदाकार होने का मार्ग है | इसमें साधक का हृदय २४ घंटे ईश्वर में लगा रहता है | जिससे वह अपने मनुष्य जन्म का पूर्ण आनंद प्राप्त कर सत्य को अपने जीवन में देख सकता है क्योंकि हमारे वास्तव में तीन शरीर है:

  1. स्थूल शरीर : जिससे हम इन्द्रियों का आनंद लेते है |
  2. सूक्ष्म शरीर : जिससे हम वासनाओं का आनंद लेते है |
  3. कारण शरीर : जिसमे आत्मा का वास है तथा जिसमे आनंद ही आनंद है |

साधना करने से इन तीनो शरीर में केवल आनंद ही आनंद रह जाता है जो की मानव शरीर प्राप्त करने का परम लक्ष्य है |

वैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो इस मार्ग में पूर्ण ध्यान में रहने से सांसारिक बीमारियाँ जैसे उच्च रक्तचाप, एवं मानसिक बिमारिया एवं तनाव में आश्चर्यजनक सुधार तेजी से होता है | इस रास्ते में साधक यह मानकर की सारा कार्य ईश्वर द्वारा किया जा रहा है वह तो केवल द्रष्टामात्र है तथा परमात्मा के हाथ का एक यन्त्र है |

कर्मेंन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ अपना कार्य करती रहती हैं, और साधक का मन परमात्मा के रस को चूसता रहता है | हर क्षण शान्ति और हर क्षण प्रभु के साथ होने का एहसास होता रहता है | उसके साथ-साथ दुनियावी काम भी यथावत् होते रहते है | इसे कोई भी बिला लिहाज़ मज़हब व मिल्लत अपनी मान्यताओं को मानते हुए अपना सकता है | इसके अभ्यास से २४ घंटे का ध्यान ईश्वर में बना रहेगा और सच्ची निष्काम कर्मता प्राप्त हो जायेगी | दस्त बकार दिल बयार की हालत बन जाती है | और सूक्ष्म अहंकार समाप्त हो जाता है |

इस आध्यात्मिक विद्या का प्रचार-प्रसार अन्य धर्मो में भी हुआ | हज़रत बाकी बिल्ला साहब कुददुसुरुह नक्शबंदिया ने भारत में पुनः इस विद्या का प्रचार एवं प्रसार किया | हजरत मौलाना फज़ल अहमद खाँ साहिब कुददुसुरुह ने सर्वप्रथम हिन्दुओं में इस आध्यत्म ज्ञान का प्रचार एवं प्रसार किया | उन्होंने अपने प्रिय एवं योग्य शिष्य परम संत महात्मा रामचन्द्र जी महाराज फतेहगढ़ को अपना उत्तराधिकारी चुना | इस सिलसिले की गौरवशाली श्रृँखला ने इस ब्रह्मज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित करके रखा है | इसी श्रृँखला में परम् संत अब्दुल गनी खाँ साहिब कुददुसुरुह, परम् संत महात्मा रामचन्द्रजी महाराज (पूज्य लाला जी महाराज), परम् संत महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज (पूज्य चच्चाजी महाराज) उनके सुपुत्र परम् संत महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज (पूज्य दद्दाजी महाराज), परम् संत महात्मा यशपाल जी महाराज (पूज्य भाईसाहब जी) एवं परम् संत रूपवती देवी जी (पूज्य माताजी, धर्मपत्नी महात्मा यशपाल जी महाराज) जैसे उत्तम कोटि के संत हुए हैं | इस सिलसिले के सभी सत्गुरु, गृहस्थ धर्मं का शास्त्रानुसार पालन करने वाले और अपनी आजीविका का स्वयं उपार्जन करने वाले रहे हैं | जीवन पर्यन्त इन सत्गुरुओं ने आध्यात्म विद्या को प्राप्त करने के तरीको का प्रचार एवं प्रसार किया व इन संतो ने स्वयं को गुरु कहलाने से हमेशा परहेज किया तथा सूक्ष्म अहं को कभी अपने पास भटकने नहीं दिया| इसलिए इन महान विभूतियों ने अपने सत्संग में प्रेम व सेवा से परिपूर्ण वातावरण विकसित किया |

इस मार्ग के साधको को अपने जीवन के हर एक कार्य के साथ-साथ अपने ईष्ट का नाम जोड़ना है | इस मार्ग की साधना जाती, धर्म, व्यवसाय, देश, अमीर-गरीब के भेदभाव से रहित है तथा हर कोई अपने जीवन में इसे अपनाकर उस परम पद को प्राप्त कर सकता है | इस साधना में सत्गुरु अपने शिष्य अपनी आत्मिक शक्ति से बीजमंत्र देकर इस साधना का शुभारम्भ करा देते है तथा सत्गुरु द्वारा बताये रास्ते पर चलकर साधक गुरु की आत्मिक सहायता से समस्त कठिनाइयों को पार करते हुए अपने जीवन के परम लक्ष्य ध्रुव पद तक पहुँच जाता है |