परम संत महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज(पूज्य चच्चाजी महाराज)

Pujya Chacchaji Maharaj
जन्म : 07 अक्टूबर 1875
समाधि : 07 जून 1947
आप महात्मा परम् पूज्य रामचन्द्र जी महाराज (लालाजी महाराज) के छोटे भाई थे | आपकी रहनी सहनी भी अपने बड़े भाई की तरह से अत्यंत सादगी भरी तथा पवित्र थी | स्वभाव से आप हंसमुख संतोषी एवं धैर्यवान थे | अदब प्रेम व शिष्टता की मूर्ती थे |
आपका व आपके बड़े भाई का विवाह बाल्यावस्था में हो गया था | आपके काफी दिनों तक कोई संतान नहीं हुयी तब आपके ससुराल वालो ने आपकी धर्मपत्नी को मान्यता मनौती के लिये रामेश्वरम् ले जाने का विचार किया | अचानक परम् पूज्य लालाजी महाराज के गुरु महाराज (परम् संत महात्मा फज़ल अहमद खाँ साहब कुद्दुसुरूह साहब जिन्हें पूज्य लालाजी साहब “हुजूर महाराज” के नाम से संबोधित करते थे) वहाँ आये और घर में तैयारियाँ देखकर तीर्थ जाने का कारण पुछा | जब उन्हें पता चला कि संतान न होने के कारण पूजा मान्यता के लिये तीर्थ जा रहे है तो आपने जज़्बे में आकर पूज्य लालाजी महाराज से फ़रमाया, “जो खुदा वहाँ है वह यहाँ भी तो है | परमात्मा की कुदरत सीमित नहीं है, वह जो चाहे और जहाँ चाहे कर सकता है | उसकी कृपा के लिए बद्रीनाथ, मक्का, मदीना, रामेश्वरम् जाने की ज़रुरत नहीं है | परमात्मा अपनी कृपा करने के लिए स्वतंत्र है और किसी विशेष स्थान का मोहताज नहीं है |
उसी जज़्बे में आपने एक कटोरे में पूज्य लालाजी महाराज से जल मंगवाया और उस पर भगवत भरी दृष्टि डाली और परमात्मा से प्रार्थना की और लालाजी साहब को आदेश दिया कि यह जल बेटी को पिला दो और इश्वर कृपा का इंतज़ार करो |”
इस घटना के दस माह बाद पूज्य महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज का जन्म हुआ | जन्म के पूर्व उनकी माताजी को अधिक पीड़ा उदर में हुयी व गर्भपात का भय हो गया तब लाला जी महाराज ने एक निवेदन-पत्र चित्तर कहार के हाथ गुरुदेव हुजुर महाराज के पास भेजा | हुजूर महाराज ने तभी उसका जवाब चित्तर-कहार के हाथ लालाजी महाराज के पास भेज दिया | हुजूर महाराज ने पत्र में लिखा था, “परमात्मा की पूर्ण हस्ती से पूर्ण आशा है कि जब उसने अपनी दया-कृपा से इसकी प्रार्थना स्वीकार की है तो किसी प्रकार का ख़तरा नहीं होना चाहिये | वह बड़ा दयावान है | परमात्मा ने चाहा तो मेरे पोता पैदा होगा और मै उसका नाम “बृजमोहन लाल” रखता हूँ |” उसके बाद चच्चाजी महाराज के चार पुत्र और दो पुत्रियाँ और हुये जिनमे से दो पुत्र दो पुत्रियाँ बचपन में ही नहीं रहे | आपके बड़े सुपुत्र परम् संत महात्मा बृजमोहन लाल जी हुये तथा दुसरे पुत्र राधामोहन लाल जी और तीसरे जीतेन्द्र मोहन लाल जी हुये |
परम् संत महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज (चच्चा जी महाराज) पूर्व में गुरु चेलो व हालातो में विशेष रूचि नहीं रखते थे | अधिक समझते भी नहीं थे | पर थोड़े दिनों बाद आप यह जान गए कि बड़े भाई किन्ही मुसलमान संत के पास जाते है, तो अपने नक़ल करने के स्वभाव से वे बड़े भाई जनाब लालाजी महाराज के साथ सत्संग में जाने लगे | चच्चाजी महाराज के साथ गुरु महाराज का व्यवहार हँसने-हँसाने का रहता था | चच्चाजी महाराज को देखकर गुरु महाराज कोई हँसने का किस्सा छोड़ देते थे | बड़े प्रेम का व्यवहार था | कभी गुरु महाराज स्वयं चिलम भर लाते और आपको पिलाते, खुद भी पीते | कभी कभी तबले की गते गुरु महाराज को चच्चाजी महाराज सुनाते | हुजूर महाराज ध्यान से सुनते और मुस्कुराते रहते, हुजूर महाराज तवज्जोह भी देते रहते थे | परम पूज्य लालाजी महाराज को चच्चाजी साहब का गुरुदेव के साथ इस प्रकार रहना अच्छा नहीं लगता था वे इसे बेअदबी समझ कर नाराज़ हो जाते थे | तब हुजूर महाराज उनसे कहते- अरे भाई ये तो हमारे खिलौने है | हमें इनके साथ खेलने में बड़ा अच्छा लगता है | इसी खेल-खेल में चच्चाजी महाराज को शान्ति का अनुभव होने लगा, वे भी सत्संग का आनंद लेने लग गए |
पूज्य चच्चाजी महाराज सत्संग में जो देखते उसे सभी को बताते – कि पूज्य लालाजी साहब वहाँ कैसे रहते थे | एक तो ये कि उन्होंने पूज्य लालाजी साहब को कभी सिर गुरु महाराज के सामने उठाये हुए नहीं देखा | न ज्यादा बात करते देखा | दूसरा “हुकुम” और हुजूर शब्दों के अलावा कुछ नहीं सुनाई देता था | तीसरा गुरु महाराज जहाँ विराजते थे, वहाँ भागकर व लपककर नहीं जाते थे | वहाँ हाथ पैर भी न हिलाते थे | चौथा- आप गुरु महाराज का घर व बाहर दोनों जगह अदब व सम्मान का पूरा ख्याल रखते थे | लालाजी महाराज के सलाम का जवाब गुरु महाराज बड़े प्रेम से आशीर्वाद देकर देते थे | पूज्य लालाजी महाराज अपनी पूरी तनख्वाह परम् पूज्य गुरु देव को लाकर दे देते थे | गुरु महाराज वह तनख्वाह चच्चाजी महाराज के हाथो लालाजी महाराज के घर उनकी धर्मपत्नी के पास भेज देते थे | परम् पूज्य लालाजी महाराज अपने गुरु-महाराज परम् पूज्य परम संत फज़ल अहमद खां साहब के सामने सभी वस्तुयें अल्प काल के लिये उधार मिली समझते थे | जब चच्चाजी महाराज को एक दिन पता चला कि उनके बड़े भाई व भाभी ने गुरु दीक्षा ले ली है तो अपने नक़ल करने के स्वभाव से घर में रूठ गए और अपनी भाभी से प्रेम से खूब लड़े कि आपने हमें गुरु दीक्षा क्यों नहीं दिलवाई | जब पूज्यपाद लालाजी साहब शाम को घर आये तो पूज्य माताजी ने कहा कि नन्हे (पूज्य चाचाजी महाराज का उपनाम) रूठ गये है, उन्हें पूजा मिलनी चाहिए | क्योंकि वह हर बात में आपकी नक़ल करते हुये आये है तो यह भी होना ही चाहिए | अकस्मात तभी गुरु-महाराज घर पर आ गए तथा तब परम पूज्य लालाजी साहब के विनयपूर्ण निवेदन पर गुरु महाराज ने चच्चाजी महाराज व उनकी धर्म पत्नी को भी पूजा दी |
परम् पूज्य गुरु देव की दया कृपा से पूज्य चच्चाजी महाराज रेलवे स्टेशन मास्टर में चुने गये तथा उनकी नियुक्ति सहायक स्टेशन मास्टर के पद पर हाथरस में हो गयी | उस खण्ड का यातायात निरीक्षक बड़ा ही बद्दतमीज था, वह सभी को गाली देता रहता था और था भी अंग्रेज़ | उसने किसी बात पर पूज्य चच्चा जी महाराज को गोली दे दी | पूज्य चच्चाजी महाराज ने उसे गाली देने से मना किया, जब वह नहीं माना तो उसे उठाकर ज़मीन पर पटक दिया | इस झगड़े का मुकदमा चला तथा पूज्य चच्चाजी महाराज कई दिनों तक निलम्बित रहे | गुरु-महाराज की दया कृपा से आप अपने ऊपर चलाये गये मुक़दमे से बरी हो गये | उस अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ने फैसले में सुनाते हुए कहा कि “किसी अंग्रेज़ को किसी हिन्दुस्तानी को गाली नहीं देनी चाहिए | चाहे गुस्से से गोली मार दे|” यद्यपि आप बरी होने के बाद बहाल हो गए और अपने गुरु-महाराज के कहने पर नौकरी छोड़ दी|
परम् पूज्य लालाजी महाराज ने पूज्य चच्चाजी महाराज को अपने गुरु-भाई मुन्शी चिम्मन लाल जी मुख्तयार साहब की मुहर्रिरी में लगा दिया |
परम् पूज्य गुरु-महाराज ने पूज्य चाचाजी महाराज को अपने अन्तिम उपदेश में फ़रमाया कि “देखो-बेटे! हमारा तुम्हारा सम्बन्ध खेल-खल का रहा है, लेकिन यह ख्याल रखना कि बड़ा भाई व बड़ी भावज माँ, बाप की तरह होते है | मेरे बाद अपने बड़े भाई को मेरी तरह समझना | वे तुम्हारे गुरु व पिता दोनों की तरह है | अगर ज़रा भी बेअदबी, गुस्ताखी, नालायकी इनसे की या इनको ज़रा भी मौका दिया कि इन्हें नाराज़गी व नाखुशी हुई तो ख्याल रखना मै मांफ नहीं करूँगा|” पूज्य चाचाजी महाराज ने गुरुदेव के इस आदेश की पूरी उम्र जिस प्रकार पालना की उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है | पूज्य चच्चा जी महाराज कहते थे कि “या तो किसी के हो जाओ या किसी को अपना कर लो|”
अप्रैल 1811 में होली के दिन अक्षत डालने के लगभग दो घंटे बाद पूज्य लालाजी साहब ने पूज्य चच्चा जी महाराज को इजाजत व खिलाफत ताम्मा प्रदान की और फ़रमाया “आज से हम में और तुम में कोई फर्क नहीं रह गया |” इसके बाद 13 सितम्बर 1813 ई० को पूज्यपाद लालाजी साहब ने चाचा गुरु महाराज परम् संत महात्मा शाह अब्दुल गनी खाँ साहब ने फतेहगढ़ में पूज्य लाला जी साहब के मकान पर रात को नौ बजे पूज्य लाला जी साहब के सामने पूज्य चच्चाजी महाराज को पूर्ण अधिकार व गुरु पदवी इजाजत खिलाफत प्रदान की और फ़रमाया “चूकी आप किबलाओ काबा हुजूर फज़ल अहमद खाँ साहब के निहायत लाडले थे और उनके खिलौने थे, मुझे भी आप उतने लाडले और अज़ीज़ है | ”
पूज्य चच्चाजी अपने बड़े भाई पूज्य लाला जी महाराज का जो अदब करते थे वो सोच से बाहर की बात है | एक बार लाला जी साहब ने आवाज़ दी नन्हें, जल्दी आओ | चच्चाजी महाराज छत पर थे | आप छत से कूदकर सामने आ खड़े हुये| फ़रमाया- हुजूर हुकुम करे| लाला जी साहब ने कहा – छत से क्यों कूदे, लग जाती तो| आपने नीचे नज़रे करके कहा हुजूर ये तो हुकुम देने वाला जाने | लाला जी साहब से वे यही शब्द कहते थे | हुजुर हुकुम करे या हुजुर गलती हो गयी माफ़ करे | वे लाला जी महाराज के सामने भी कम पड़ते थे | कहते थे अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से दूर रहना चाहिए |
जो सत्संगी भाई पूज्य चच्चा जी महाराज के निकट सत्संग में रह चुके है, उनका यह कहना है कि पूज्य चच्चाजी महाराज किसी से पैर नहीं छुवाते थे | वे ब्राह्मणों का बड़ा आदर करते थे तथा उन्हें तो बिल्कुल भी पैर नहीं छूने देते थे | ब्राह्मण का कोई उनसे छोटा लड़का भी उनके पास आता तो आते ही उससे “पाय लागन बेटा” कहकर उसका मान करते थे | कोई भी व्यक्ति उनको पहले सलाम नहीं कर पाता था, ज्यों ही कोई व्यक्ति उनके सामने आता उनका हाथ पहले ही सलाम के लिए उठ जाता था | एक पंडित जी जो रसोई बनाते थे, जब पूज्य चच्चा जी महाराज का निर्वाण हो गया, तब उनके शरीर के पास यह सोचकर आये कि जीवन में तो इन्होने पैर छूने नहीं दिए अब अंतिम बार चरण छू लू | पंडित जी ने ज्यों ही अपना हाथ चच्चा जी के चरण छूने को बढ़ाया पूज्य चच्चाजी महाराज ने अपना पैर एक दम पलट लिया | ये देखकर पंडित जी डर गए फिर हिम्मत न जूटा सके |
एक बार चाची जी (धर्मपत्नी चच्चाजी महाराज) की आँख की पुतली में मवाद पड़ गयी | पूज्य चच्चाजी महाराज के शिष्यों में जो डॉक्टर थे उन्होंने चच्चाजी महाराज को मर्ज बताकर ऑपरेशन कराने को कहा | दूसरे दिन डॉक्टरो ने घर पर ही ऑपरेशन की व्यवस्था कर ली | उसी रात चाची जी की आँख में भयंकर दर्द हुआ, चाची जी चच्चाजी महाराज के कमरे में गयी और उनके पैरो में सर रखकर बोली भयंकर दर्द है, आप ही कुछ कीजिये कहीं इस दर्द से प्राण न निकल जाये| बस इतना कहते ही चाचीजी को नींद आ गयी | चच्चाजी ने कहा जाओ सो जाओ | लेटते ही चाचीजी को गहरी नींद आ गयी | रात भर आराम से सोई | प्रातः 8 बजे के लगभग डॉक्टर आये और आँख को देखा | आँख की पुतली देखकर डॉक्टरो को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि आँख में जो मवाद पड़ गयी थी बिल्कुल गायब हो गयी थी |चाची जी से रात की घटना सुनकर डॉक्टर चच्चाजी साहब के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए | चच्चाजी साहब ने कहा कि मै कोई डॉक्टर तो हूँ नहीं, तुम्ही जानो ऐसा कैसे हुआ | डॉक्टर चच्चा जी महाराज का यह चमत्कार देखकर दंग रह गए |
आप से परम पूज्य लाला जी साहब को भी कितना प्रेम था | यह इस बात से स्पष्ट है कि आप दोनों को एक सिक्के के दो पहलू बताते थे | उन्होंने इस सिलसिले में बुजुर्गो के शज़रे में अंत में लिखा है कि मुझे यह विश्वास नहीं है कि मेरे बाद मेरे जिस्मी भाई का नाम शज़रे में जोड़ेगे | अतः मै अपने सामने ही शज़रे में यह नज़्म लिखे जा रहा हूँ | “या इलाही फ़ज्ल से दे इश्क फ़ज्ले अहमदी | राम फ़जली और रघुवर बाअता के वास्ते|”
एक बार पूज्य चच्चाजी महाराज हरिद्वार यात्रा पर गए | लक्ष्मण झूला से पहले ही एक चबूतरे पर छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गए | सभी लोग चच्चाजी महाराज, उनके पौत्र पूज्य सुरेन्द्रनाथ जी व अन्य एक दो सत्संगी भाइयो को छोड़कर सभी लक्ष्मण झूला के उस पार ऋषिकेश के महत्पूर्ण स्थानों के दर्शन के लिये चले गये| वहाँ पर सुरेन्द्रनाथ जी ने देखा कि धीरे-धीरे कई साधू महाराज महात्मा वहाँ एकत्र होने लगे | वहाँ महात्माओ की भीड़ एकत्र हो गयी | ये सभी पूज्य चच्चा जी महाराज के चारो और बैठ गए और ध्यान मग्न हो गये | लगभग 30-40 मिनट बाद श्री सुरेन्द्र नाथ जी ने देखा कि सभी महात्मा गायब हो गये | इससे यह ज्ञात होता है कि पूज्य चच्चा जी महाराज की यात्रा केवल सैर-सपाटा नहीं थी, वे उन सभी महात्माओ को आत्मिक लाभ पहुँचाने के लिए ही वहाँ गये थे |
जब कभी दादा गुरु महाराज हुजूर महाराज परम् संत फज़ल अहमद खाँ साहब के पौत्र जनाब शाह मंजूर अहमद खाँ साहब पूज्य चच्चाजी महाराज से मिलने आते तो उन्हें अपनी चारपाई के सिरहाने कुर्सी डलवा कर बिठाते | यद्यपि जनाब मंजूर अहमद खाँ साहब आग्रह करते कि जैसे सत्संगी भाई जमीन पर बिछी दरी पर बैठते थे, वैसे मै भी दरी पर बैठना मुनासिब समझता हूँ तो पूज्य चच्चाजी महाराज फरमाते कि बेटे तुम हमारे पीर मुर्शीद की संतान हो | अतः मै यह कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम मेरे सामने जमीन पर बिछी दरी पर बैठो |
6 जून 1847 को पूज्यपाद चच्चाजी महाराज ने एकान्त में गाँधी जी से कहा – “मेरे बाद तुम्हारी तालीम को पूरा करना बड़े मियाँ (महात्मा बृजमोहन लाल जी) की जिम्मेदारी है | जी जान में लगकर उनसे सब हासिल कर लेना |” श्रीमान गांधी जी फ़रमाया करते थे कि पूज्य चच्चाजी महाराज ने उनकी बुद्धि पर ऐसा पर्दा डाला कि उनकी समझ में न आया कि इसका कोई ख़ास मकसद है |
अगले दिन शाम को पूज्य चच्चाजी महाराज ने आखिरी सफ़र की तैय्यारी शुरू कर दी | सुबह सत्संगी काली शंकर भटनागर से फ़रमाया “आखिरी सलाम |” सभी चिट्ठियों के जवाब लिखा कर पोस्ट कर दिये, मणि आर्डर भी भिजवाये | दोपहर को खाना खाकर थोडा आराम करके दो तीन, बजे के बीच आप बाहर दालान में तशरीफ़ लाये और दादीजी (धर्म पत्नी ) से कहा कि डॉ०मंगली प्रसाद को बुला दो हमारे सीने में दर्द है | एक मुंशी जी और बाबाजी बाहर मौजूद थे | ये बाबा जी आपके अंतिम शिष्यों में से एक थे | डॉक्टर मंगली प्रसाद के आने से पहले आप दलान में बिछे पलंग पर पलथी मारकर बैठ गये | आँखे बंद कर ली, लगता था गहरे ध्यान में अपने ही फैज़ में डूब गये हो | डॉक्टर मंगली प्रसाद ने आपकी नब्ज़ देखकर एक इंजेक्शन लाने को कहा | फ़ौरन वह इंजेक्शन लाया गया | जब इंजेक्शन लगाने को डॉक्टर ने नब्ज़ देखी तो दुख में डूब गये | नब्ज़ गायब थी | डॉक्टर ने अच्छे तरह से जाँच की तथा फूट फूटकर रोने लगे|
घर के सभी लोग आ गये | सत्संगी भाई भी आ गये | सभी ने आपको पलंग पर लिटा दिया| आपके विशाल का समाचार सारे शहर में फ़ैल गया | शाम तक बंगले में इतनी भीड़ हो गयी कि पैर रखने तक की जगह न रही |
यह खबर पूज्य दद्दाजी महाराज को तार द्वारा फतेहगढ़ पुलिस कार्यालय को भेजी गयी परन्तु वह तार उन्हें नहीं मिल सका |
7 जून 1947 को रात्रि में सत्संग में फतेहपुर में श्री हकीम जी भैरो प्रसाद से श्री बृजमोहन लाल जी ने अर्ज किया कि उन्होंने स्वप्न में चच्चाजी महाराज को अपनी कुर्ता व टोपी श्री बृजमोहन लाल जी को दी है | इतना कहकर वे बहुत ही चिंता में पड़ गये और फर्माया कि “यह ख्वाब अच्छा नहीं है, हमें बड़ी बेचैनी है|”
जब रात बारह बजे तक परम् पूज्य दद्दाजी महाराज घर (कानपुर) नहीं पहुँचे तब एक सत्संगी भाई तुरंत फतेहपुर रवाना हो गए | वे लगभग 3 बजे फतेहपुर पहुँच गये | उन्होंने महात्मा बृजमोहन लाल जी से पुछा | “क्या आपको तार नहीं मिला?” इस पर दद्दाजी महाराज ने पुछा – कैसा तार? सब खैरियत तो है | तब ये सत्संगी भाई फूट-फूट कर रोने लगे, कहा कि भैया खैरियत नहीं है – चच्चा जी बिशाल फरमा गये है |
यह सुनकर महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब स्तब्ध रह गये | वे माता जी का सहारा लेकर उठे और फ़रमाया | “हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा है | जान निकली जा रही है, बाबू शिव प्रसाद नारायण जी को फ़ौरन बुलवा लो |”
आधा घंटे में सब इंतजाम करके कानपुर के लिए अन्य सत्संगी भाइयो के साथ चल दिये | आप सुबह 7 बजे कानपुर पहुँच गये | सभी सत्संगी भाई आपसे गले लिपट कर रोते रहे | आप दो ढाई घंटे में सम्भल पाये | अब कुछ सत्संगी भाइयो में आपके चच्चाजी महाराज के अंतिम संस्कार के लिए मतभेद होने के कारण पूज्य बृजमोहन लाल जी महाराज पूज्य चच्चाजी के शरीर के सामने अकेले ध्यान में बैठे तथा निर्णय सुनाया कि चच्चाजी की मर्ज़ी सशरीर समाधी की है | लिहाज़ा उसी का प्रबंध किया जावे |
इस पर कानपुर हमीरपुर रोड पर एक स्थान खोज निकला गया जो शहर के लगभग 7 मील दूर था | 8 जून 1947 को चच्चाजी महाराज के दर्शनो का एक हुजूम बंगले के बाहर था | सभी कतार बनाकर दर्शन करने लगे | कमरा फूलो से भर गया | भाइयो के दुःख का पारावार न था | इस अंतिम यात्रा में भीड़ का ये आलम था कि 9-10 मील पैदल सफ़र में किसी को दो दफा से ज्यादा कंधा लगाने का अवसर नहीं मिला | नौबस्ता पहुँचते-पहुँचते साढ़े चार बज गये | सभी सत्संगी भाइयो के विचार से यह तय हुआ कि अर्थी को लाहा साहब की कार की छत पर रख दिया जावे | तब महात्मा बृजमोहन लाल जी की अनुमति से पूज्यवर चच्चाजी महाराज की अर्थी को लाहा जी की कार पर, जिस पर पूज्य चच्चाजी महाराज सफ़र में आया जाया करते थे, रख दिया गया | पूज्यवर कहा करते थे कि लाहा जी इंशा अल्लाह आखिरी सफ़र भी तुम्हारी कार पर ही होगा |” लाहा जी उस समय फूट-फूटकर रो पड़े | कार शाम लगभग 5 बजे समाधी स्थल पर पहुँची|
संत परंपरा के अनुसार आपकी समाधि एक गुफा के रूप में बनायी गयी थी | उसे अन्दर से पक्का कर दिया गया | सभी सत्संगी भाइयो ने आपके अंतिम बार चरण स्पर्श कर गुलाब का इत्र लगाया तथा अंतिम सलाम किया | उस समय सभी ने देखा कि पूज्यवर चच्चाजी साहब की नाक से जमा हुआ ताजा खून बह रहा था | जबकि आपको शरीर छोड़े हुए चौबीस घंटे से ज्यादा हो चुके थे | सूफी संत-मत के अनुसार मालिक की याद में शहीद होने वालो के साथ ही ऐसा होता है | ऐसा शाह अब्दुल गनी खाँ साहब ने फ़रमाया था | इसके बाद पूज्य बृजमोहन लाल जी साहब व् उनके दोनों भाइयो ने आपके पार्थिव शरीर को गुफा रुपी समाधि में रखा | गुफा का दरवाज़ा बंद कर दिया गया | हजारो लोग उस समय बच्चो की तरह रो रहे थे | यह 8 जून सन् 1847 को सायं काल का समय था | सभी पूज्य दद्दाजी जी बृजमोहन लाल जी साहब के पीछे बैठकर एक घंटे तक मौन श्रद्धांजलि अर्पित करते रहे | कुछ लोग वहीं पर रुके और आपकी समाधि जो कच्ची मिट्टी की बनी थी पर सोये तथा वही रहे |
अगले रोज़ से ही सभी सत्संगी भाई चच्चाजी साहब की समाधी पर हमदर्दी देने जाते थे | दसवी को अनगिनत भाइयो ने अपने सर व दाढ़ी मूछ मुड़ाकर सामूहिक रूप से श्रद्धांजलि दी|
पूज्य चच्चाजी महाराज के आदेशानुसार परम् पूज्य महात्मा बृजमोहन लाल जी की दस्तारबन्दी की गयी | तेहरवी की रस्म के बाद सभी लोग घर वापस आ गये व दादी जी से आशीर्वाद प्राप्त कर इस हिम्मत के साथ वापस घर गये कि पूज्य चच्चाजी महाराज गायबाना तौर पर ज्यों के त्यों मौजूद है |
उस वर्ष सन् 1947 में दशहरे के मौके पर चच्चाजी महाराज की समाधि पर भंडारे की शक्ल में उत्सव किया गया | जहाँ यह अनुभव किया गया कि रूहानी दरिया जैसा चच्चाजी महाराज के समय में बहता था, वैसा ही ज्यों का त्यों मौजूद है | सन् 1948 में वसंत के जलसे का रूप बदल गया | अब भंडारा एक दिन पूज्यपाद चच्चाजी महाराज के निवास-स्थान पर होता था | दुसरे दिन सभी भाई समाधि पर उपस्थित होकर आपके फैज़ का अमृत रस पान करते थे | यह सिलसिला अभी तक वसंत के दिन चला आ रहा है |
चच्चा जी महाराज एक दिन पंडित जी पापा जी व पेशकार साहब को उनकी गुत्थी सुलझाने को अपने पास बैठाकर तवज्जो फर्मायी कि तीनो के सर ध्यान मग्न होने के कारण ज़मीन पर आ गये | करीब सवा घंटे बाद चच्चाजी ने पूछा-कहो गुत्थी सुलझी? सभी ने कहा कि “अल्लाह अगर तौफीक न दे, इन्सान के बस की बात नहीं| चच्चा आप फ़रिश्ते है , जनम-जनम का दूषित संस्कार आपने साफ़ कर दिया जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धकार साफ़ हो जाता है |” पापा जी से कहा-पंडित तुम्हे आज बहुत अच्छी चीज़ मिली है | उन्होंने कहा – हाँ चच्चा आपने फर्माया- पंडित इसकी हिफाज़त करियो | पंडित जी (पं० छोटे लाल जी और पापा जी) – आज हमें बहुत ऊँची चीज़ मिली है | चच्चा जी – हाँ पंडित | पापा जी फिर कहा – पंडित तुम्हे आज बहुत अच्छी चीज़ मिली है | उन्होंने कहा – हाँ चच्चा | आपने फर्माया – पंडित इसकी हिफाज़त करना | इस पर चच्चाजी महाराज हंस पड़े, बोले वाह पंडित-लाद दे, लदवाय दे और लादन वालो साथ देय | पापा जी जब दोपहर को चच्चाजी महाराज के पास तशरीफ़ लाये तब चच्चाजी महाराज तब बायीं करवट से तख़्त पर लेते थे | तब पापा जी उनकी पाठ की तरफ निचे बिछी चटाई पर लेटे थे | उनका ख्याल था कि चच्चा जी महाराज सो रहे है | पूज्य चच्चाजी महाराज ब्राह्मण से पैर नहीं छुआते थे और सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते थे | पापा जी ने सोचा कि चच्चा जी तो सो रहे है, क्यों न उनके हुक्के की चिलम हटा कर ताज़ा भर दे | जब जागेंगे तब उसका लुफ्त उठा लेंगे | इस तरह बिना दिक्कत के यह शिष्टाचार की दीवार हट जायेगी | ज्यों ही ऐसा सोचा, चच्चा जी ने लेटे-लेटे वहीं से फर्माया- पंडित, सो कछु नाहीं|
पापा जी – चच्चा का कछु नाही |
चच्चा जी – वहीं चिलम वाली बात|
पापा जी – (आँखों में आँसू लाकर बोले) चच्चा हम सेवक है, आपके गुलाम है, क्या है ? नहीं जानते | बस यह जानते है कि आपकी कृपाधार, इनायत, सत्संग में मिली खैरात है जो कभी किताबो में पढ़ी थी | हम आपकी चिलम भरने के लायक कब हो सकेंगे | इस ब्राह्मणौती की दीवार को तोड़कर अपनी सेवा का एक अवसर तो दीजिये | न हम ब्राह्मण है, न कायस्थ हम तो सेवक है आप स्वामी, हम गुलाम है, आप आका | अगर हम आपकी चिलम भरे तो क्या हर्ज़ है ?
चाचाजी – (हंसते हुए) पंडित सांची कहत हो तुम भरो चिलम, हम पीयें | कोऊ दोष नहीं पर दुनियाँ कहे – चच्चा बामनन से चिलम भरवाउन लगे | पापा जी – चच्चा मशहर में हम होंगे और फर दुनिया की फिकर क्यों करे | चच्चा जी यह बात सही है, मगर एक दिक्कत है, कबहूँ तुम्हारे मन में जो आय गयो कि हम ब्राह्मण चच्चा हमसे चिलम भरावत है तो हमारो तो कुछ न विगरेगो पर तुम्हारे घत तेरे की हो जायेगी |
पापा जी – चच्चा, ऐसा नहीं होगा | आपकी इनायत से बड़े-बड़े मुकाम तय हो जाते है | यह तो छोटी बात है | आप हमारी हिफाज़त कीजियेगा | अब चिलम भर लावे ? चच्चा जी – मुस्कुराते हुए – पंडित तुम्हारी बात सही है, मगर एक और झंझट है सोचो ! कबहुँ हमारो मन में आयी गई कि अब बामन हमोरो हुक्का भरन लागे है, तो तुम्हारो तो कछु नाय बिगरेगो मगर हमारी घत तेरे की हो जायेगी | पापा जी – चच्चा में हमारा ईमान है, आपके मन में ऐसी बात नहीं आयेगी | आप उस मुकाम पर है, जहाँ शैतान उतरे तो उसके पंख जल जाये | अब हम चिलम भर लाये |
चच्चा जी – पंडित, जिस चीज़ में तीन-तीन थापड़ है उसका टालना ही अच्छा है | तभी किसी अन्य भाई को आवाज़ देकर कहा कि तुम चिलम भर लाओ | आप फरमाते थे कि फ़कीर संसार में सबसे चतुर होता है, वह अपने बैठने, सोचने व व्यवहार की ज़मीन इतनी साफ़ रखता है कि धूल का शक होने पर भी उसे झाड़ कर साफ़ रखता है | यह ख्याल आपके उक्त व्यवहार में साफ़ झलकता है |
ऐसी पवित्र आत्मा को सत् सत् प्रणाम् |