श्री यशपाल वचनामृत उपक्षेप

परम संत महात्मा श्री यशपाल जी महाराज (पूज्य) भाईसाहब जी का मुख्य ध्येय “दिल व यार, दस्त व् कार है” | जो कुछ आपने अपने सत्गुरु से प्राप्त किया, वह उसी रूप में साधको को वितरण किया | जहाँ तक बन सके आन्तरिक अभ्यास किया-कराया जाने और जिन पर आदृढ़ होने से सहज में मनुष्य दुनिया के सब काम करते हुए आध्यात्मिक लाभ उठा सकें |

 – वर्तमान समय में संसार भौतिकता की ओर इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है कि मानव अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों पर नियंत्रण खोता जा रहा है |

 – संत, महात्मा, सूफी एवं योगी जो उनके मन को एकाग्र करा सके तथा आत्मा से उस रोग की पहचान करा सके, वह ही मानसिक रोगों का निदान करने में तथा सच्चा मानसिक एवं आध्यात्मिक जीवन प्राप्त कराने एवं निर्देशन करने में समर्थ होते है |

– आध्यात्मिक विद्या एक रहस्यमयी विद्या, दिल की विद्या है | पुस्तके प्रेरणा मात्र दे सकती है |

– वास्तविक सहायता एक जीवित गुरु से ही प्राप्त हो सकती है, जो साधक के ह्रदय में आध्यात्मिक विद्या का स्फुकरण कर सकता है |

– एक ज्वलन्तज्योति ही प्रसुप्तज्योति को जला सकती है |

समस्त सत्संगी भाई व प्रेमी सज्जनों के अनुराग से इस दासानुदास ने परमसंत महात्मा यशपाल जी के अमृतमय उपदेशो व संदेशो को उन्ही की वाणी में सबके समक्ष श्री यशपाल वचनामृत के रूप में रखने का साहस किया है | परमपिता परमात्मा मालिकेकुल से विनय व दीनतापूर्वक प्रार्थना है कि वे इस सेवक को भक्ति व मार्ग दर्शन प्रदान करें ताकि इस प्रयास में सफल हों | इस दास को पूर्ण आशा है कि सब ही का सहयोग इस शुभ कार्य में इस पतित को अवश्य ही प्राप्त हो सकेगा | परमात्मा तू ही है, तेरी इच्छा पूर्ण हो |

विनीत

दासानुदास रमेश

इस पुस्तक के 2 भाग है “भाग १” और “भाग २”

“भाग १” में परिच्छेद १ से लेकर परिच्छेद ११ तक का संकलन है | परिच्छेद १ से लेकर परिच्छेद ११ तक के विषय इस प्रकार है :

  1. परिच्छेद १ : दद्दाजी महाराज के प्रथम दर्शन व कृपा |
  2. परिच्छेद २ : गुरु-दर्शन का प्रभाव, प्रभु ध्यान में सब कार्य
  3. परिच्छेद ३ : सिकंदराबाद भंडारा एवं गुरु का कार्य
  4. परिच्छेद ४ : गुरुदेव की रहनी-सहनी व ज्ञान-बोध
  5. परिच्छेद ५ : प्रथम शान्ति पाठ, गुरुदेव दर्शन एवं निर्देश
  6. परिच्छेद ६ : बीज मन्त्र की प्राप्ति तथा उसका प्रभाव
  7. परिच्छेद ७ : घर को आश्रम कैसे बनायें ? सदस्यों में सुधार कैसे लाऐं?
  8. परिच्छेद ८ : पूर्णनिष्ठा व गुरु पर विश्वास
  9. परिच्छेद ९ : जबलपुर सत्संग एवं दद्दाजी महाराज के सानिध्य में सत्संग
  10. परिच्छेद १० : जबलपुर सत्संग 1953 एवं गुरु-भाई पर कृपा
  11. परिच्छेद ११ : प्रथम दिल्ली भंडारा 1957

“भाग २” में परिच्छेद १२ से लेकर परिच्छेद २५ तक है | इसमें “गुरु दीक्षा के लिए पात्र कैसे बनायें?”, “गुरु में पूर्ण विश्वास और समर्पण” और “बुजुर्गो की कृपा” मुख्य शीर्षक है |

यशरूप साधना पद्दति उपक्षेप

“वन्दौ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि |

महा मोह ताम पुंज, जासु वचन रवि कर निकर ||”

महर्षि पतांजलि ने अपने योग दर्शन के ग्रंथ में आदेश दिया कि “योगिश्चित वृत्ति  निरोधः” चित्त में वृत्ति का निरोध कैसे हो जाये | दो मार्ग है एक हट योग जिसे हम संन्यास का मार्ग कहते है दूसरा राज योग है | हठयोग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास बताया व कराया जाता है | आजकल न तो मनुष्य की इतनी आयु ही है न ही आरोग्यता | हठ योग में धन की

आवश्यकता होती है | जिससे खाने में फल-दूध मेवा का सेवन कर सकें आज गृहस्थ जीवन में यह सब सम्भव नहीं हो पाता | दुसरे उसका व उसके परिवार का ब्रह्मचर्य सात पीढ़ी का होना आवश्यक है | भक्त गर्भ में ही योग की पूर्ण शिक्षा पाकर परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है और सुरत धार से सदैव आनन्द मग्न रहता है | जब बच्चा गर्भ से बाहर आता है तो नर्स उसकी जीभ को साफ़ करती है और उसकी सुरत की डोरी को खींच लेती है | संसार इसे रस, रूप, शब्द, स्पर्श गंध के चक्कर में डाल देता है | जब वह कातर मन से पुकारता है तब परमपिता परमात्मा उस अधिकारी पुरुष को ऐसे किसी संत महात्मा के पास पहुँचा देते है जहाँ पर गुरु की निज कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है | राजयोग के मार्ग में चलते हुए मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहते हुए, किस कुल में पैदा हुआ है उसके सारे रीति रिवाज़ करते हुए परम परमेश्वर का साक्षात्कार अनुभवी सत्गुरु की सहायता से कर सकता है | इस शिक्षा से महर्षि अष्टावक्र जी ने सात घंटे की घनी समाधि के

पश्चात राजा जनक को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराया था | इश्वर के ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता है | सच्चे गुरु की पहचान क्या है ? सच्चा गुरु कोई विशेष व्यक्ति नहीं है | सच्चा गुरु वह है जिसकी संगति में बैठने से दुनिया के विचार आने कम हो जाए और ध्यान व आध्यात्मिक शान्ति का एहसास हो | आत्मिक विद्या से दोनों लोक, तथा परलोक सुधरते है | यह सबसे उत्तम और श्रेष्ठ है | महात्मा कबीर साहब ने कहा है –

“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय|

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय||”

तुलसीदास जी ने कहा है :

“रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेहु जो जाननि हारा|”

यह विद्या जहाँ भी मिले लग लिपट कर सीख ले | अपने विचार अत्यन्त स्वतंत्र और संकल्प,  विकल्प रहित होने चाहिए | यशरूप साधना पीठ की साधना पद्दति जो कि श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और भक्ति पर निर्भर है जिसे विभिन्न नामों से जाना जा सकता है जैसे सहज योग, आनंद योग और इसका अभ्यास करने से मन को शान्ति प्राप्त होगी और साथ ही साथ अनुभव होगा कि गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए आनन्द योग द्वारा ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो परम संत महात्मा श्री यशपाल जी ने अपने सत्गुरुदेव परम संत महात्मा बृजमोहन लाल जी द्वारा स्थापित आनंद योग पद्दति का अनुसरण करते हुए इसे समस्त भारतवर्ष के कोने-कोने में जिज्ञासुओ की पिपासा शांत करने के लिए पहुँचाया | इस पुनीत कार्य में परम संत पूज्य माताजी काअदितीय अद्वितीय सहयोग रहा है | इसी श्रृखला के सत्संग को आगे बढ़ाने का शुभ कार्य श्री रमेश जी, ज्येष्ठ पुत्र परम संत श्री यशपाल जी रूपमती देवी जी, कर रहे है | इस सत्संग का उद्द्येश्य भूले, भटके जानो को श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम का रस पिलाकर ईष्ट में तदाकार कराना है | इस सत्संग में सब धर्मो के साधको को उनके कुल की मर्यादाओं का पालन करते हुए, साधना का तरीका बताया जाता है | इस साधना का तरीका प्राचीन है | महर्षि अष्टावक्र जी ने अपने प्रिय शिष्य महाराज जनक को इस साधना के तरीके के अनुसार ब्रह्मज्ञान प्रदान कर, आत्म साक्षात्कार कराया जो कि मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है | इस आध्यात्मिक विद्या का प्रचार-प्रसार अन्य धर्मो में भी हुआ | हजरत मौलाना फज़ल अहमद खाँ साहब ने सर्वप्रथम हिन्दुओ में इस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार एवं प्रसार किया | उन्होंने अपने प्रिय एवं योग्य शिष्य परम संत महात्मा रामचन्द्रजी महाराज फतेगढ़ को अपने उत्तराधिकारी चुना | इस सिलसिले की गौरवशाली श्रृँखला ने आजतक इस ब्रह्ज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित करके रखा है | इसी श्रृँखला में परम संत अब्दुल गनी खाँ साहिब कुद्दुसुरूह, परम संत महात्मा रामचन्द्रजी महाराज (लाला जी महाराज), परम संत महात्मा बृजमोहन लाल जी (दद्दाजी महाराज),

परम संत महात्मा यशपाल जी महाराज (भाई साहब जी), परम संत रूपवती देवी जी (पूज्य माताजी) जैसे उत्तम कोटि के संत हुए है | इस सिलसिले के सभी सत्गुरु, गृहस्थ धर्म का शास्त्रानुसार पालन करने वाले और अपनी आजीविका का स्वयं उपार्जन करने वाले रहे है |

जीवन पर्यंत इन सत्गुरुओ ने आध्यात्म विद्या को प्राप्त करने के तरीको का प्रचार एवं प्रसार किया व् इन संतो ने स्वयं को गुरु कहलाने से हमेशा परहेज किया तथा सूक्ष्म अहं को भी अपने पास भटकने नहीं दिया | इसलिए इन महान विभूतियों ने अपने सत्संग में प्रेम व सेवा से परिपूर्ण वातावरण विकसित किया | इस मार्ग के साधको को अपने जीवन के हर एक कार्य के साथ-साथ अपने ईष्ट का नाम जोड़ना है | यह साधन-पद्दति जाति, धर्म, व्यवसाय, देश, अमीर-गरीब के भेदभाव से रहित है | इस मार्ग में एक ईष्ट के ध्यान व नाम द्वारा ईश्वर में चित्त की एकाग्रता प्राप्त करने की (concentration and meditation) की विधि को समझाया जाता है | बताई हुयी व्विधि के अनुसार अभ्यास करने से थोड़े ही समय में जिज्ञासुओ को सुषुप्ति, उलट-धार सहज समाधि, आध्यात्मिक चक्रो का जागरण, 24 घंटे का ध्यान और आत्मसाक्षात्कार जैसे सुन्दर और आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त होते है | श्रद्धा, भक्ति, प्रेम एवं विश्वास से अभ्यास करने वाले साधको को शान्ति एवं दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है ऐसे साधको के ह्रदय से, विनम्रता एवं विश्व-बन्धुत्व का प्रेम छलकने लगता है | ऐसे साधक, सत्गुरु की कृपा से, गृहस्थ के सर्व कार्य कुशलता पूर्वक एवं धर्मानुसार करते हुए, आध्यात्म के शिखर तक पहुँच जाते है | और जीवन मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेते है | इस उच्चतम आध्यात्मिक विद्या का प्रचार एवं प्रसार पूज्य श्री रमेश जी ज्येष्ठ पुत्र परम संत महात्मा श्री यशपाल जी महाराज (भाई साहब जी) एवं परम संत रूपवती देवी जी (पूज्या माता जी) कर रहे है | इस सत्संग का मुख्यालय – बी-68-भू-तल, सी० सी० कालोनी,

दिल्ली-110007 में स्तिथ है प्रत्येक रविवार एवं बृहस्पतिवार को सत्संग शाखाओं पर सत्संग कार्यक्रम होते है | संत शिरोमणि, महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज ने परम पिता की प्राप्ति के लिए, क्रियात्मक सूत्रों को अपने जीवन में उतारा | यह वह सूत्र है जो साधक को गृहस्थ जीवन धर्मानुकूल व्यतीत करते हुए आध्यात्म के उच्चतम शिखर तक पहुँचा देते है | इन सूत्रों का मुख्य मकसद यही है कि साधक अपने जीवन के हर पहलू को कैसे व्यतीत करे ताकि उसे परमपिता परमात्मा की निष्काम भक्ति एवं आत्म ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाए | इन सूत्रों को परम दयालु संत महात्मा यशपाल जी महाराज ने अपने जीवन में उतारा और भंडारे एवं सत्संग के दौरान अपने हृदयग्राही प्रवचनों में उल्लेख बड़े प्रेम से करते थे | ये वो सूत्र है जिन्हें साधक अपने ह्रदय में धारण करके, अपने जीवन व्यतीत करते है, उन्हें थोड़े ही समय में अधिकाधिक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है | सुषुप्ति, सहज समाधि तथा 24 घंटे अपने ईष्ट का ध्यान जैसी दुर्लभ अवस्थाये प्राप्त होती है, निष्काम कर्म की भावना जग जाती है | सूक्ष्म अहंकार सदैव के लिए दूर हो जाता है | और साधक का अपने ईष्ट से एकाकार हो जाता है | इन्ही सुन्दर, सहज क्रियात्म शिक्षाओं को अंश, आप सबके लाभार्थ सेवा में प्रस्तुत है |

यह करनी का भेद है, नाहि बुद्धि विचार | 

कथनी छोड़ करनी करे, तब पावे कछु सार ||

मनुष्य शरीर एक दिव्य रत्न है जिसको परम पिता परमात्मा ने अपने अनुग्रह से हमें प्रदान यह कर फल पुनि विषय न भाई | स्वर्गहुँ स्वलप अन्त दुख दाई || सांसारिक विषय, मर्यादा में रह कर हमारे शरीर की रक्षा करते है | मर्यादा के बाहर जाते ही विष रूप हो जाते है | उनकी प्राप्ति हमारे जीवन का ध्येय नहीं हो सकती | इस लोक के सुखो का क्या कहना, देव लोको के सुख भी क्षण भंगुर और अंत में दुखदायी है | फिर ध्येय क्या है जिस के लिए प्रयत्न उचित है |

देह धरे कर यह फल भाई | भजइ राम सब काम विहाई || 

सखा परम परमारथ एहू | मन क्रम वचन राम पद नेहू || 

सब कर मत खग नायक एहा | करिय राम पद पंकज नेहा || 

परमानन्द की प्राप्ति और सब दुखो की नितान्त निवृत्ति भगवत्पाद पदमो की प्राप्ति है | मिलहि न रघुपति बिनु अनुरागा | किए कोटि विधि योग विरागा | सब कर फल हरि भक्ति सुहाई | सो बिनु संत न काहू पाई | इसी भक्ति को पाने की प्रार्थना गोस्वामी तुलसीदास जी ऊपर की चौपाई में करते है | यह भक्ति अविरल रूप से तभी प्राप्त होती है जब भगवान् हमको संतजनों के गुण प्रदान करते है | अपने निजी पुरुषार्थ से यह संभव नहीं है | वह भगवत कृपा पर निर्भर है उनकी ही कृपा से सज्जन मिलते है जिनके सत्संग से ही यह सब दिव्य गुण साधक में आते है तभी भक्ति महारानी भी आ कर ह्रदय में निवास करती है और रजत पट खोलकर भगवत साक्षात्कार

पर उपकार वचन मन काया | संत सहज सुभाव खग राया ||

सुख देवे दुःख को हरे, मेटे सब अपराध | यह कबीर वह कब मिले परम सनेही साध ||

परम पिता परमात्मा में लीन सत्गुरुओ की पवन पवित्र मुक्त आत्माओं के सुन्दर-सुन्दर पावन कमलवत-चरणों में दीनता पूर्वक समर्पित है |

यशरूप साधना पीठ की साधन पद्दति गृहस्तियो के लिए एक सुन्दर, सरल और क्रियात्मक मार्ग प्रस्तुत करता है |

इस पुस्तक में निम्नलिखित विषय है:

  1. साधना के सिद्धांत
  2. यशरूप साधना पद्दति का प्रथम भाग : इसमें बताया गया है की किस प्रकार मनुष्य संसार के सभी कार्य करता हुआ 8 घंटे इश्वर की याद में बना सकता है|
  3. यशरूप साधना पद्दति का द्वितीय भाग : इसमें बताया गया है की किस प्रकार मनुष्य संसार के सभी कार्य करता हुआ 16 घंटे इश्वर की याद में बना सकता है|
  4. यशरूप साधना पद्दति का तृतीय भाग : इसमें बताया गया है की किस प्रकार मनुष्य संसार के सभी कार्य करता हुआ 24 घंटे इश्वर की याद में बना सकता है|
  5. निष्काम कर्म : इसमें बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य सभी कार्य करते हुए करता मुक्त हो जाता है | वह यह समझने लगता है कि कोई भी कार्य वह नहीं कर रहा परन्तु इश्वर कर रहा है |
  6. गुरु की पहचान : इसमें बताया गया है कि गुरु के क्या क्या गुण होते है |
  7. विनय और प्रेम : इसमें पूजा के दो गुण विनय-प्रेम के विषय में बताया गया है | ये दो गुण विनय-प्रेम मनुष्य को ईश्वर तक ले जाते है |
  8. योग और उसकी साधना : इसमें मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के विषय में बताया गया है और किस प्रकार इन इन्द्रियों को अपने वश में कर सकता है |
  9. सदाचार गति : इसमें बताया गया है कि उचित व्यवहार क्यों महत्वपूर्ण है और मनुष्य व्यवहार में सुधार कैसे ला सकता है |

आत्म बोध उपक्षेप

इस पुस्तक में तीन भाग है, जो कि इस प्रकार है :

भाग 1 (आत्म-बोध): सत्संग भंडारे के अवसरों पर सदगुरुओं, सिलसिले के बुज़ुर्गानो की अमृत वाणी का संकलन पाठक व पाठिकाओ के लाभार्थ प्रस्तुत है |

भाग 2 : संत श्री रमेश जी (बड़े भैया जी) द्वारा आपके परम पूज्य गुरुदेव जी परम संत महत्मा श्री यशपाल जी महाराज (परम पूज्य भाईसाहब जी) के नाम लिखे गए पत्र|

भाग 3 : परम पूज्य, परम संत महात्मा श्री यशपालजी महाराज (पूज्य भाई साहबजी) द्वारा लिखित पत्र आपके प्रिय पुत्र, परम प्रिय शिष्य व संत श्री रमेश जी (पूज्य बड़े भैया जी के नाम)|

 

पूजा क्यों और कैसे करें? उपक्षेप

हमारे सद्गुरुओ की श्रंखला की प्राचीन ब्रह्म विद्या वही ब्रह्म ज्ञान है, जो महर्षि अष्टावक्र जी ने अपनी 12 वर्ष की अवस्था में राजा जनक को प्रदान किया था | तभी से राजा जनक देह रहते हुए विदेह कहे जाते है | यह कथन सत्य नहीं है कि केवल सन्यास मार्ग से ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है, गृहस्थ से नहीं | जनक तो गृहस्थी थे, राजा थे | राज्य संचालन के लिए बहुत ही व्यस्त जीवन उनका रहा होगा, परन्तु राजा जनक आत्म साक्षात्कार के प्रबल जिज्ञासु थे, उनके अन्दर परम पिता परमात्मा की चाह थी इसलिए महर्षि अष्टावक्र जैसे सत्गुरु उन्हें अनायास ही मिल गए और घोड़े की एक रकाब से दूसरे रकाब तक पैर ले जाने की अवधी में ही आत्म साक्षात्कार करा दिया था |

ये प्राचीन ब्रह्म विद्या त्रेता और द्वापर तक रही | कलयुग में प्रकति का काल कर्म और स्वभाव से दोषायुक्त हो जाने से विलुप्त होती गयी | यह विद्या अरवियन सूफियों में कहीं कहीं संरक्षित रही | परम सूफी संत मौलाना फज़ल अहमद साहब (कुद्दुसुरूह) ने इस ब्रह्म ज्ञान को हिन्दुओ में प्रसारित करने का संकल्प लिया और महात्मा रामचन्द्रजी को अपना प्रिय शिष्य बनाया तभी से ये विद्या सिलसिले के बुज़ुर्गान सद्गुरुओ द्वारा कायम रही | वर्तमान में पूज्य बड़े भैय्याजी यश रूप साधना पीठ की स्थापना करके इस ब्रह्म ज्ञान का प्रचार प्रसार कर रहे है | पूजा क्यों और कैसे करे, एक तरीकत के रूप में इस छोटी पुस्तिका के माध्यम से प्रेमी-जनो को लाभान्वित होने हेतु प्रकाशित की गयी है | आशा है कि प्रेमी जन इसके गूढ़ रहस्यों को ह्रदय ग्राही बनायेंगे | और जीवन में ही जीवन मुक्त अवस्था प्राप्त करेंगे |

पूजा क्यों और कैसे करें, एक महत्वपूर्ण प्रश्न है | खासकर आज की इस दुनिया में, जबकि मनुष्य की व्यस्तता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और वह भूलता-सा जा रहा है कि वह है क्या ? सत्संग भंडारे के अवसरों पर परम संत महात्मा यशपाल जी महाराज की अमृत वाणी का संकलन पाठक और पाठिकाओ के लाभार्थ इस पुस्तक में प्रस्तुत है |

इस पुस्तक में निम्नलिखित विषय है:

  1. पूजा क्यों करें ? : इसमें बताया गया है कि पूजा करना क्यों आवश्यक है |
  2. पूजा कैसे करें ? : इसमें बताया गया है कि अपने धर्म के मत पर चलते हुए मनुष्य किस प्रकार पूजा करे कि उसकी आतंरिक उन्नति हो|

 

कर्म को पूजा में कैसे बदले? उपक्षेप

हमारे सद्गुरुओ की श्रंखला की प्राचीन ब्रह्म विद्या वही ब्रह्म ज्ञान है, जो महर्षि अष्टावक्र जी ने अपनी 12 वर्ष की अवस्था में राजा जनक को प्रदान किया था | तभी से राजा जनक देह रहते हुए विदेह कहे जाते है | यह कथन सत्य नहीं है कि केवल सन्यास मार्ग से ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है, गृहस्थ से नहीं | जनक तो गृहस्थी थे, राजा थे | राज्य संचालन के लिए बहुत ही व्यस्त जीवन उनका रहा होगा, परन्तु राजा जनक आत्म साक्षात्कार के प्रबल जिज्ञासु थे, उनके अन्दर परम पिता परमात्मा की चाह थी इसलिए महर्षि अष्टावक्र जैसे सत्गुरु उन्हें अनायास ही मिल गए और घोड़े की एक रकाब से दूसरे रकाब तक पैर ले जाने की अवधी में ही आत्म साक्षात्कार करा दिया था |

ये प्राचीन ब्रह्म विद्या त्रेता और द्वापर तक रही | कलयुग में प्रकति का काल कर्म और स्वभाव से दोषायुक्त हो जाने से विलुप्त होती गयी | यह विद्या अरवियन सूफियों में कहीं कहीं संरक्षित रही | परम सूफी संत मौलाना फज़ल अहमद साहब (कुद्दुसुरूह) ने इस ब्रह्म ज्ञान को हिन्दुओ में प्रसारित करने का संकल्प लिया और महात्मा रामचन्द्रजी को अपना प्रिय शिष्य बनाया तभी से ये विद्या सिलसिले के बुज़ुर्गान सद्गुरुओ द्वारा कायम रही | वर्तमान में पूज्य बड़े भैय्याजी यश रूप साधना पीठ की स्थापना करके इस ब्रह्म ज्ञान का प्रचार प्रसार कर रहे है | प कर्म को पूजा में कैसे बदले, एक तरीकत के रूप में इस छोटी पुस्तिका के माध्यम से प्रेमी-जनो को लाभान्वित होने हेतु प्रकाशित की गयी है | आशा है कि प्रेमी जन इसके गूढ़ रहस्यों को ह्रदय ग्राही बनायेंगे | और जीवन में ही जीवन मुक्त अवस्था प्राप्त करेंगे |

कर्म को पूजा में कैसे बदले आज की दुनिया में एक महत्पूर्ण प्रश्न है, जबकि मनुष्य की व्यस्तता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, और मनुष्य भूलता जा रहा है कि वह क्या है | सत्संग भंडारे के अवसरों पर परम संत महात्मा यशपाल जी महाराज, व अन्य सतगुरु परम संत महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज, परम संत महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज, परम संत महात्मा रामचन्द्र जी महाराज व अन्य सूफी संत जो इस सिलसिले के हुये, उनकी अमृत वाणी का संकलन पाठक व पाठिकाओ के लाभार्थ इस पुस्तक में प्रस्तुत है |

इस पुस्तक में बताया गया है कि किस प्रकार कर्म इन्द्रियों व ज्ञान इन्द्रियों द्वारा संसार के समस्त कार्य सदाचरण का पालन करते हुए कर्म पूजा में बदल जाये, जिससे सहज ही में मनुष्य दुनिया के सब काम करते हुए पूर्ण आध्यात्मिक लाभ उठा सके |

इस पुस्तक में निम्नलिखित विषय है:

  1. मनुष्य कौन कौन सी क्रियाए करता है, जिसमे वह इश्वर का नाम जोड़ सकता है |
  2. अभ्यास करने का फायदा|
  3. पूजा में हम क्या करते है ?
  4. कर्म में भावना का महत्त्व|
  5. कर्म को निष्काम-कर्म में कैसे बदले?