परम संत महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज
जन्म : 14 अप्रैल 1898
समाधि : 17 जनवरी 1955या इलाही सब बुजुर्गो का करम मुझ पर रहे |
श्री बृजमोहन लाल मुर्शिदर हेनुमा के वास्ते ||
आप (परम संत महात्मा ब्रिज मोहन लाल जी) परम संत महात्मा श्री रघुवर दयाल जी महाराज (चच्चाजी महाराज) के बड़े सुपुत्र थे | आपका जन्म दिव्य जन्म था | आपके पिता के लम्बे वैवाहिक जीवन में संतान नहीं होने पर रामेश्वरम् में मनौती के लिए जाने की, घर में जब तैरी (आपके मामा,नाना के आग्रह पर) चल रही थी तभी अचानक हुजूर महाराज वहाँ पर आ गये और तैय्यारी का कारण जानने के बाद पूज्य लाला जी महाराज से फ़रमाया जो खुदा वहाँ है, वह यहाँ भी है | अल्लाह तआला की कुदरत महदूद नहीं है | वह चाहे, जहाँ चाहे, कुछ भी कर सकता है | उसकी इनायत और करम के वास्ते रामेश्वरम्, बदरी नाथ, मक्का या मदीना जाने की ज़रुरत नहीं, मालिक अपना फ़ज़लो करम करने के लिये आजाद है और किसी खास जगह का मोहताज नहीं है |
जनाब हुजूर महाराज (पूज्य मौलाना फज़ल अहमद खां साहब) ने एक कटोरे में जल मंगाकर, भगवत प्रेम से भरी दृष्टि डालकर, मुनासिब दुआ की तथा आदेश दिया, “यह जल बिटिया को पिला दो तथा मालिक की अनुकम्पा की प्रतीक्षा करो |” महात्मा जी ने वह जल महात्मा रघुवर दयाल जी की पत्नी को पिला दिया इसके दस माह बाद ही पूज्य दद्दाजी मरज (महात्मा ब्रिज मोहन लाल जी) का दिव्य जन्म सन् 1898 में रामनवमी के दिन हुआ | अपने पूज्य गुरुदेव हुजूर महाराज की आज्ञानुसार आपकी परवरिश पूज्य लाला जी महाराज के पास उनकी देख रेख में हुयी |
पैदाइश से दो-तीन माह पूर्व आपकी माताजी को उदर पीड़ा हुयी, भय हुआ कि कहीं गर्भपात न हो जावे | पूज्य लाला जी महाराज ने तुरंत सूचना अपने सेवक चित्तर कहार के माध्यम से हुजूर महाराज को भेजी | इस पर हुजूर महाराज ने जवाब में तुरंत “हुकुमनामा” पत्र की शक्ल में सादिर फ़रमाया – “जब उस परिवरदिगार ने इस आसी पुरमुआसी बन्दे की दुआ क़ुबूल फरमाई है, तो कोई खतरा किसी किस्म का न होना चाहिये- इंशा अल्लाह मेरे पोता पैदा होगा और मै उसका नाम बृजमोहन लाल रखता हूँ |”
हुजूर महाराज ने आपका गर्भ में होते हुए ही नामकरण कर दिया था तथा आपको बहुत प्यार करते थे | बचपन में गोद में खिलाया करते थे | एक दिन हुजूर महाराज ने लाला जी महाराज से फ़रमाया “इस बच्चे की परवरिश आप स्वयं करे, इंशा अल्लाह अपने वक़्त में यह मेरा खलीफा होगा |”
मालिक जब पूछेगा “दुनिया से मेरे लिये क्या लाये ? तो तोहफे के रूप में तुम्हे और इसे पेश करूँगा | आने वाले समय में यह आफताब की तरह चमकेगा और इसकी जात से आलम मुनव्वर होगा | हालात, बाकयात व नुकात की खबर बड़ी खूबी के साथ देगा – इसकी जात से रूहानी तरीकत की शम्मा रोशन होगी |”
आप पर छोटी अवस्था में ही पूज्य लाला जी महाराज व पूज्य चच्चाजी महाराज का स्नेह व शिक्षा के प्रभाव से आपके चारो तरफ का वातावरण प्रकाश से भर जाता था |
एक दिन परम पूज्य लाला जी साहब ने चाचा गुरु महाराज मौलाना हाजी शाह अब्दुल गनी खां साहब को बतौर तोहफे के आपको नज़र किया | उन्होंने आपको क़ुबूल फर्मा कर वयत-दीक्षा-प्रदान की | इस अवसर पर महात्मा ब्रिज मोहन लाल जी साहब को पूज्य लाला जी साहब ने अपना कुर्ता व अपनी टोपी पहनाकर जनाब किबला मौलवी साहब-पूज्यवर हाजी शाह अब्दुल गनी खां साहब को नज़र किया | जनाब किब्ला, लाला जी साहब व पूज्यवर चच्चा जी महाराज मौलवी साहब को अपने गुरु के सामान समझते थे | तीनो महापुरुष महात्माओ का प्रभाव पूरी तरह महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब पर रहा और उनसे रूहानी दौलत पूर्ण रूप से प्राप्त की | महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब को इन तीनो बुजुर्गो की तरफ से पूर्ण अधिकार-हुक्मे खिदमत-व तकमील हासिल हुयी | जनाब मौलवी साहब ने आपका नाम, अपने जज़्ब और मोहब्बत से अपनी पसन्दगी के वास्ते मोहम्मद सईद रख दिया था, जो हमेशा गुप्त सा रहा तथा सारा समाज आपको हुजूर महाराज के दिये गये नाम “बृजमोहन लाल” से ही जानता रहा |
महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब सन् 1931 में लाला जी साहब के पर्दा कर जाने के बाद सत्संग की सेवा उन्ही के सामान करते रहे | फतेहगढ़ भादारे पर तालीम व तवज्जोह-तसर्रूफ की सेवाये पूज्यपाद चच्चा जी महाराज के सामने आपके द्वारा होती रही | सन् 1932 में आपके प्रवचनों का संग्रह आपके प्रिय शिष्य मुंशी जगदम्बिका प्रसाद जी ने हरदोई में “आइनेए-इल्मे-बातिन” की शक्ल में प्रकाशित किया | बाद में आपके शिष्य पूज्य परम संत महात्मा श्री यशपाल जी महाराज ने भी आ०भा० सं० सत्संग से प्रकाशित कराया |
पूज्य महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब शास्त्रीय संगीत से पारंगत थे | कंठ बहुत मधुर था, स्वर पूर्ण थे | अक्सर जब आप हारमोनियम पर गाते थे तब पूज्यवर चच्चाजी साहब यह भूल कर कि आप उनके सुपुत्र है तबला पर संगत करने लगते थे | उनके गाने बजाने की महफ़िल में फैज़ की बारिश होती थी वहाँ बैठने वाले अपना आप खोकर बेसुध हो जाते थे |
पूज्य चच्चाजी ने आपको हुक्म, खिदमत, इजाज़त व खिलाफत तथा सभी कुछ अता फर्माया था | अपने विसाल के बाद सारे सत्संग समाज को गुप्त आदेश (गायवाना इरशाद) फर्माकर एक जाहिरी संस्कार से मामूर कर दिया था | समाज को बिखरने से बचा लिया था | पूज्यपाद चच्चाजी साहब के शरीर त्याग देने के बाद तेहरवी के दिन बाबू प्रभु दयाल जी पेशकार व पं० हरवंश लाल जी त्रिपाठी पर इशारा होने पर तथा अन्य सत्संगी बंधुओ पर उसी प्रकार की हालत गुजरने पर आपके सारे सत्संग-समाज ने उसी दिन महात्मा बृजमोहन लाल जी के दस्तारबंदी पर पगड़ी बांध कर व तिलक कर नजराने दिये और जाहिरा तौर पर भी आपके, पूज्य चच्चाजी महाराज के जाँनशी होने की घोषणा की | यह सन् 1947 जून की बात है |
महात्मा बृजमोहन लाल जी का पहला विवाह जिला फरुखाबाद के तिरवा के एक रहीस परिवार में हुआ | पहली पत्नी से एक कन्या ने जन्म लिया, जिनका नाम सुषमा था | अपनी शादी के लगभग दो वर्ष बाद धर्मपत्नी परमधाम चली गयी, इस घटना के लगभग तीन माह बाद आपकी सुपुत्री सुषमा भी इस संसार से परम धाम को चली गयी |
आपके दुःख को देखकर पूज्यपाद लाला जी साहब आपको हर प्रकार की सांत्वना देते रहते थे | यह अनमोल जीवन, जो संसार के कल्याण करने वाला था कही बिकार न जाये, इसके लिये पूज्य लालाजी साहब ने ऊपरी हिदायते व रूहानी ज़रूरतों को देखते हुये मई 1928 में पूज्यपाद श्रीमती शकुन्तला देवी के साथ विवाह संपन्न कराया | इस विवाह से पूज्य बृजमोहन लाल जी साहब के जीवन में आयी वह कमी पूरी हो गयी जिसके न होने पर फकीरी राह में सेवा करना संभव न हो पाता | इस विवाह को पूज्य लाला जी साहब ने रूहानी निगाह से अहमियत दी |
पूज्यपाद दद्दाजी महाराज (महात्मा बृजमोहन लाल जी) साहब की हस्ती में निखार सन् 1928, से जब आपको मौलवी साहब हाजी अब्दुल गनी खाँ साहब के द्वारा पूर्ण इजाज़त खिलाफत व सिलसिले की नूरानी बरकत हुजूर महाराज के पूर्व सत्गुरुदेव हजरत खलीफा जी साहब- मौलाना हाजी शाह अहमद अली खाँ साहब (जिनकी समाधी-मज़ारे शरीफ-कायमगंज, जिला फर्रुखाबाद में स्तिथ है ) की दस्तार मुबारक हासिल होने पर हुयी | सन् 1928 दशहरे के मौके पर यह पहला अनुष्ठान संपन्न हुआ | हुजूर महाराज के सत्गुरु मौलाना अहमद अली खाँ साहब के स्वप्न में देखे गये इशारे पर मौलाना शाह अब्दुल गनी साहब ने उन्हें यह दरबार की टोपी जो उन्हें इस सिलसिले की पूर्णता प्राप्त होने पर मौलाना अहमद अली खाँ साहब ने अता फ़रमायी थी, आपको (महात्मा बृजमोहन लाल जी) को पहनायी गई | टोपी पहनते ही आपकी आँखे रंग गयी, पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयी, जुबान कुछ बाहर निकल पड़ी | शरीर में ऐंठन व खिंचाव हो गया | पूज्य लाला जी ने आपको अपनी गोद में संभाला | मौलाना साहब ने अपना रूमाल आपके सीने पर रख कर फ़रमाया “परमात्मा चाहेगा (इंशा अल्लाह) मरेगा नहीं | यह तो एक आलम मुनव्वर करेगा (सारी दुनिया में प्रकाश फैलायेगा) इसकी इजाज़त ईश्वरीय देन है |” बाद में “प्रथम उत्तराधिकारी” अर्थात् सबसे पहले पूर्ण गुरु-पदवी पाने वाले अर्थात खलीफाए-अव्वलीन का खितराब अता फर्मा कर अन्दर चले गये |
पूज्य लाला जी साहब इतने मगन थे कि अक्सर जज़्बे में आकर फरमाते थे, जो नेमतें इस फ़कीर को मिलने में अधूरी रह गयी थी, इस होनहार बच्चे के जात से पूरी की, पूरी मेरे हिस्से में आ गयी |
यह भी फरमाते थे – “अब सब काम पूरे हो गये और मेरे जिंदा रहने की ख्वाहिश ख़त्म हो गई | इन्शा अल्लाह बुजुर्गो की अनमोल धरोहर, मुझे उम्मीद है सुरक्षित रहेगी |”
एक रोज़ पूज्य लाला जी महाराज ने अपने कानपूर प्रवास के समय पूज्य चच्चा जी महाराज से फ़रमाया था कि हम तुम तो चिरागे सहरी की तरह टिमटिमा रहे है, अब यह काम अगली पीढ़ी में जाना चाहिये | अतः दो व्यक्ति प्रोफेसर राजेंद्र कुमार जी व बाबू दुर्गा स्वरुप जी को चुना गया | बाबू दुर्गा स्वरुप जी के अनुसार उस समय पूज्य लाला जी साहब गरम शौल ओढ़े खड़े थे, प्रोफेसर साहब दुर्गा स्वरुप जी चच्चा जी के इशारे पर पूज्य बृजमोहन लाल जी के सामने बैठे हुये थे | उसी समय पूज्य लाला जी महाराज ने महात्मा बृजमोहन लाल जी को उनके उपनाम “बिरजू” कह कर जोर से पुकारा |
पूज्य बृजमोहन लाल जी घबराये से गरम कमीज़ व धोती पहने वहाँ उपस्थित हो गये | पूज्य चच्चा जी साहब ने पूज्य लाला जी साहब की मुस्कराहट भरे इशारे पर अपनी टोपी पूज्य महात्मा बृजमोहन लाल जी के सर पर रख दी | टोपी देखकर पूज्य लाला जी साहब हंस पड़े क्योंकि टोपी उलटी लग गयी थी | पूज्य लाला जी साहब ने उसे अपने हाथो से सीधा किया | महात्मा बृजमोहन लाल जी की हालत से लगता था कि जैसे वो कोई गुनाह कर रहे हो | पूज्य लाला जी साहब एक दम संजीदा होकर कहने लगे | अभी से तुम्हारा यह हाल है ! मै तुम्हारे इन्कसार से बहुत खुश हूँ, जैसा मै कहूँ वैसा करते रहो, अल्लाह तआला ने जो तोफीक तुम्हे बक्शी है और जो पवित्र कार्य करने के लिये तुम्हे चुना है अब उसका वक़्त आ गया है, मै चाहता हूँ कि यह काम तुम मेरे सामने शुरू कर दो, जिससे मै सुकून के साथ इस दारेफानी से अपने बुजुर्गो के आगोश में चमकता हुआ चेहरा ले जाऊँ – इन्शा अल्लाह मालिक तुम्हारी जात से हमारे खानदान को मुनव्वर करेगा |”
महात्मा बृजमोहन लाल जी की आँखे नाम हो गयीं वे अपने में सुकुड़ते चले जा रहे थे | तभी लाला जी साहब ने आदेश दिया “हाथ बढ़ाओ” इस पर लाला जी महाराज ने ताज आवाज़ में फर्माया दुर्गा स्वरुप | तुम बढ़ाओ |
लगभग पंद्रह मिनट ऐसी खामोशी रही | कमरे में नूर का वह आलम था कि सारा जहान सिमट कर वहीं आ गया हो | पूज्य लाला जी साहब पूरे समय वहीं खड़े रहे और बयत की रस्म पूरी हो जाने के बाद पूज्य चच्चाजी महाराज की ओर मुस्कुराकर देखा | इन दोनों बुजुर्गो ने हाथ उठाकर अन्दर ही अन्दर दुआ की और महात्मा बृजमोहन लाल जी की ओर आँख उठाकर फर्माया “शाबास” और दुआ फर्माते हुये बाहर तशरीफ़ ले गये |
पूज्य चच्चा जी महाराज ने बाबू दुर्गा स्वरुप व गया प्रसाद जी को सभी आवश्यक आदेश दिये थे, परन्तु उस जज़्ब में ये दोनों ही भूल गये | तब चच्चा जी महाराज ने आदेश दिये “इनको नज़र दो और अदब से मुर्शदाना सलाम करो” और आँख के इशारे से पूज्य बृजमोहन लाल जी साहब के पैर चुने का इशारा किया | इससे पहले वे दद्दाजी के पैर छूते उन्होंने सस्ब-सजूद पूज्य चच्चा जी महाराज के कदमो में झुका दिया | पूज्य चच्चा जी महाराज खिलखिलाकर हँस पड़े | सांसारिक नियमो के अनुसार मिठाई बाँटी गयी | चच्चाजी महाराज ने बड़ी ख़ुशी के साथ पूज्या चाचीजी से फ़रमाया “आज हम पोते वाले हो गये |” अब बुड्ढो की तरह रहना सीखो | पूज्य चच्चाजी महाराज ने फिर दोनों को आकर आदेश दिया – यहाँ से जाकर सो जाना किसी से बात मत करना, सुबह से नई जिंदगी शुरू करो |
उसी रात पूज्य चाचीजी के आग्रह पर प्रोफेसर राजेंद्र कुमार जी को सिलसिले में दाखिल करते समय पूज्य लाला जी साहब ने फ़रमाया – “मुझमे और इस अज़ीज़ नन्हे (चच्चा जी साहब) में कोई फर्क न समझना दो जान एक कालिब है, मगर अज़ीज़ बिरजू(महात्मा ब्रिज मोहन लाल जी) को अपने मुर्शदो यानी-सत्गुरु सामान-ख्याल करना”| यह भी फ़रमाया कि “जो काम एक जिंदा लोमड़ी कर सकती है वह मुर्दा शेर से मुश्किल है |”
पूज्य बृजमोहन लाल जी के पास पुराने सत्संगियों को सिलसिले में दाखिल करने का तांता लग गया, जिनमें उनसे उम्र में काफी बड़े लोग भी थे | जब सत्संगी भाई आपके चरण स्पर्श करते या गुरु का सम्मान देते तो संकोच करते कई बार झिड़क देते कहते – “जो तुम हो सो मै हूँ अदब चच्चा का किया करो |” मज़ा तब आता जब ये भाई पूज्य चच्चा जी महाराज के पास तालीम की दरख्वास करते तो चच्चा जी महाराज भी फरमाते “अब ये बातें अपने गुरु महाराज से किया करो, पुछा करो | मुझको चैन की नींद सोने दो |”
जब पूज्य लाला जी साहब से कहा गया कि भाई साहब (पूज्य बृजमोहन लाल जी महाराज) बुजुर्गो के कहे अनुसार उन्हें अपना अदब नहीं करने देते तब उन्होंने पलट कर फ़रमाया “यह उनकी बुलंदी है, मगर तुम्हे होशियार रहना चाहिये |”
सन् 1931 में पूज्य लाला जी साहब एवं सन् 1946 में पूज्य चच्चा जी महाराज के विसाल के बाद सारी जिम्मेदारी महात्मा बृजमोहन लाल जी पर आ गयी | घर का वातावरण कुछ इस तरह का हो गया कि पूज्य दद्दाजी महाराज (महात्मा बृजमोहन लाल जी) का पूज्य चच्चाजी वाले घर में पूज्य चच्चा जी की इच्छा न होते हुये भी रहना न हो सका और उन्होंने सन् 1939 में कानपुर में ही एक फूलबाग में एक कच्चे मकान को जिसमे बुनियादी सुविधायें भी नहीं थी, आशियाना बनाया | जब पूज्य गांधीजी वृद्ध सत्संगी ने चच्चाजी से अपना दुःख प्रगट किया तो उन्होंने फ़रमाया मुझे जो दुःख है उसका एक ज़र्रा भी यदि तुम्हे मिल जाये तो जीना मुश्किल हो जाये | फ़कीर के एक हाथ में आग और एक हाथ में पानी होता है | आग स्वयं खाता है और पानी दूसरो को पिलाता है | आग खाते समय भी वह बहुत खुश रहता है | ताकि बुजुर्गो के काम में रुकावट न पड़े |
शायद रिवज़ा से हो नई सूरत बहार की |
कुछ मसलहत इसी में हो, परवर दिगार की |
सन् 1940 से 1944 तक आप इसी मकान में रहे | सन् 1944 में आपका स्थानान्तरण बुलंदशहर हो गया |
वहाँ पर पूज्य चच्चाजी महाराज के शिष्य व आपके भक्त श्री मोहन लाल जी पेशकार पहले से ही मौजूद थे | यहाँ आप लगभग छ: माह तक रहे | फतेहपुर पुलिस दफ्तर में सन् 1930 से 1936 तक, सन् 1936 से 1944 तक कानपुर, 1944 से 1946 तक बुलन्द शहर, हमीर पुर, उन्नाव नौकरी के सिलसिले में तबादले होते रहे | 1946 से 1948 तक आप फतेहपुर में कार्यालय अधीक्षक का कार्य करते रहे, सन् 1950 से 1951 तक एटा रहे फिर आपके तबादला फतेहगढ़ हो गया | पूज्यनीय माताजी की बीमारी के कारण आपने वहाँ जोइन नहीं किया तथा लखनऊ तशरीफ़ ले आये और यही से सरकारी कार्यभार से मुक्त हो गये |
आपका जीवन चमत्कारों से भरा हुआ है | ऐसा कोई ही सत्संगी भाई हो जो चमत्कारों से रूबरू न हुआ हो | जहाँ भी आप गये आपके पीछे हज़ारो की भीड़ होने लगती | आपका जीवन अदब व प्रेम की मिसाल है |
आपका चयन दरोगा (पुलिस) के पद पर हो जाने पर आपने वह चयन-पत्र पूज्यवर लाला जी साहब को दिखाया, घर में बड़ी ख़ुशी थी | परन्तु आपने लाला जी महाराज से जब यह सुना की दरोगा होने जा रहे हो ? पर हम तो तुम्हे गरीब देखना चाहते है | आपने उस पत्र को उसी समय फाड़कर फेक दिया औए बाद में पूज्य लाला जी साहब की आज्ञा से उसी पुलिस विभाग के दफ्तर में क्लर्क की नौकरी की |
पूज्य लाला जी महाराज के सामने आप बड़े अदब से जाते तथा निगाहें हमेशा नीची रखते | कुछ भी बात करने पर प्रेमाश्रु छलक आते थे |
नवम्बर 1951 के महीने में जब किवला हाज़ी अब्दुल गनी खां साहब अपने आँख के इलाज के लिये अलीगढ तशरीफ़ ले जा रहे थे तो उन्होंने आपको पत्र द्वारा सूचित किया, यह सूचना पाकर आप तड़प कर रह गये | आप उन दिनों आर्थिक परेशानी में थे | आप जब घर आये तो आपको परेशान देखकर पूज्य माताजी के कारण पूछने पर आप खामोश रहे, ज्यादा पूछने पर मजबूर होकर आपने फ़रमाया हजरत किबला आँख के इलाज के लिए अलीगढ जा रहे है, मै उनकी कुछ भी मदद करने की स्तिथि में नहीं हूँ, आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनकी ख़ुशी या गम में पूरी तरह शरीक न हुआ हूँ | इस पर पूज्य माताजी ने अपने धर्म का निर्वाह करते हुये सोने की चूड़ियाँ आपको लाकर दे दी | इस पर आपने कहा, सोच लो, मै फिर बनवा नहीं पाऊँगा | माता जी ने कहा आपकी मर्ज़ी पर न्योछावर होने से बढकर कोई जेवर नहीं है | आपने उन चूडियो को बेचकर (500/-) पाँच सौ रुपये एक लिफ़ाफ़े में रखकर अपनी जेब में रख लिये |
पूज्य मौलवी साहब भी गॉव से एटा पहुँच गये थे | एटा में जब अलीगढ जाने को कार में बैठ गए तब आपने वह लिफाफा सबसे नजर बचाकर पूज्य मौलवी साहब को नज़र कर दिया | उन्होंने आप से पुछा – “बीत इसके इंतजाम में कोई तकलीफ तो नहीं हुयी ?” आपने बड़े अदब से जवाब दिया – “अगर न कर पता तो बड़ी तकलीफ होती |” कहते कहते आपका दिल भर आया | पूज्य मौलवी साहब आपके इस व्यवहार से इतने प्रसन्न हुये कि जैसे नेमत मिल गयी हो | ऐसा था आपके दिल में बुजुर्गो के प्रति प्रेम व सेवा भाव जो शायद ही कहीं और देखने को मिले |
पहले भण्डारा 1951 में जब शुरू किया गया तो पूज्य महात्मा बृजमोहन लाल जी ने पूज्य मौलाना शाह अब्दुल गनी खां साहब से इस महोत्सव को शुरू करने की इज़ाज़त चाही |
जिसके जवाब की आपके सुपुत्र व खलीफा शाह अब्दुल गफ्फार खां साहब ने कानपूर लाकर दिया | जिसमे मौलाना गनी खां साहब ने आशीर्वाद सहित आज्ञा देते हुये लिखा –
“बेटे ! यह तुम्हारी अज़ीम सआदतमन्दी है, जो तुम इन मामूली बातों में भी इजाज़त तलब कर (माँग) रहे हो फिर मिजाज़ गंशा की हद तक तुम पहुँच गये हो, तुम मेरी मर्ज़ी बखूबी जानते हो, मै तुम्हारे अख़लाक़ से बहुत खुश हूँ | पीरे उज्जाम की अरवाह तैय्यवात-मुक्त पवित्र आत्माए तुमको यह तौफीक दे रही है | इंशा अल्लाह तुम्हारा कायम किया हुआ जल्सा हमेशा कायम रहे | आप ज़रूर जल्सा कीजिये और ख्याल रखिये कि मखलूक-सृष्टि को दावते खुदा दी जावे न कि दावते खुदी |”
इस जल्से में उस समय के सभी महानुभाव शरीक हुये तथा एक फैज़ के विशाल दरिया में स्नान कर स्वयं को धन्य किया | हमारे सत्संग में हमारे बुजुर्गो का असर पहले दिलो को जीतता है, फिर दिमाग चुपचाप उसके आगे अपने आप को समर्पित कर देता है, यह अनुभव सभी सत्संगी भाइयो का अनुभव है |
महात्मा बृजमोहन लाल जी की शख्शियत बुजुर्गो की कृपा धार का एक भण्डार बन गयी थी | आपकी सोहबत में बहुत से मुसलमान साहिबान जो सच्ची इबादत की खोज में थे आके पास आकर फैज़याब हुआ करते थे | हकीम अब्दुल हलीम जैसे श्रेष्ठ व सभ्रान्त व खुले दिल के लोग दूसरे मशहूर सत्संग के सिलसिले के संत महात्मा सूफी फ़कीर सभ्रांत व्यक्ति आपकी सेवा में उपस्थित होते थे | आपके द्वारा आयोजित भंडारे में सभी धार्मिक संकीर्णता से दूर सच्चे आध्यात्म के प्रसाद को पाते व एक ही कतार में बैठकर भाई चारे के प्रेम से ओत-प्रोत हो परमात्मा के पवित्र फैज़ का पान करते थे | यह इनायत व बरकत आज भी उनके इस भंडारे में दशहरे के अवसर पर सभी को अनुभव व देखने को मिलता है |
सन् 1953 में संख्या बहुत बढ़ जाने के कारण बड़ी मुश्किल से मुशी मदन मोहन लाल जी की मदद से इस बात पर राजी किया गया कि सत्संग की सीमाओ में उनकी अमृत वाणी को व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाने के लिये माइक को प्रयोग किया जावे | आप जाहिरी नुमाइश बिल्कुल पसंद नहीं करते थे | इसी समय आप पर यह ख्याल गुज़रा कि दोपहर के वक़्त एक दिन रामायण-भक्तो पर चर्चा होनी चाहिये |
दुसरे दिन महाभारत, भगवद्गीता व संत महात्माओं का ज़िक्र होना चाहिये और तीसरे दिन कलाम-पाक व सूफी संतो का जिक्र व बयान होना चाहिये | अतः उसी वर्ष भंडारे में यह कार्यक्रम शामिल किये गये |
सन् 19 54 से आपका आध्यात्मिक मिशन तेजी से चलने लगा, आप स्वयं जगह जगह सत्संग के लिये जाने लगे | फतेहगढ़ भंडारे के बाद आपने लगभग 150-200 सत्संगी बन्धुओ के साथ ऋषिकेश में एक रमणीक स्थल जो भगवान आश्रम के नाम से जाना जाता था, पर सत्संग शिविर जो पंद्रह दिन का था लगाया, जिसमे भंडारे के अनुसार ही कार्यक्रम प्रतिदिन किया गया | आपने जो आध्यात्मिक पवित्र ग्रंथो में छिपे आध्यात्मिक रहस्यों का बखान किया, यदि उनका संकलन किया जावे तो एक ग्रन्थ ही तैयार हो जावे | ये पन्द्रह दिन का समय कैसे गुज़र गया पता ही न चला |
सन् 1953 की तरह अगला भण्डारा पांच दिन का हो गया | भण्डारे में बहुत से भाइयो ने आपसे वैयत हासिल की | इसी भण्डारे पर परम पूज्य दादी जी (धर्मपत्नी पूज्य लाला जी महाराज) ने आपसे फ़रमाया – “बड़े, तुम ये सब बाते सबसे कहते हो, आगे न मालूम कौन माने न माने | मेरे कहने से तुमने अपने बुजुर्गो के जो हाल लिखने शुरू किये है, उसे विस्तार से लिख डालो, जिससे आने वाली पीढ़ी को उन मर्यादा पुरुषोत्तम के दर्शन करने में कोई दिक्कत न हो |”
सितम्बर 1954 मोगांव जलसे पर आपके प्रवचनों में बड़ी गंभीर चेतावनिया होती थी | सारा संत समाज उसका लाभ उठा रहा था | समय खिसकते-खिसकते 1955 ई० में प्रवेश कर गया | इस समय इस भगवत भक्ति के मस्त व खुशनुमा मौसम में रेगिस्तानी गरम हवा के साथ करवट ले ली |
आपने जनवरी 1955 में 6 जनवरी को लखनऊ से शाहजहांपुर के लिये प्रस्थान किया, जहाँ दो दिन का व्यस्त कार्यक्रम रहा | बहुत से मुसलमान फ़कीर भी इसमें शरीक हुये | वहाँ से आप बरेली चले गये | जहाँ चार-पांच दिन का प्रवास रहा, यहाँ पीलीभीत, बदायूँ सीतापुर से भी सत्संगी भाई शरीक हुये|
इस तारक आप बरेली से मुरादाबाद होते हुये देहली पधारे | यहाँ कई दिन रहे तथा सत्संगी भाइयो के घर जाकर आशीर्वाद दिया | आप यहाँ, इस सिलसिले के बादशाह जिन्होंने इस सिलसिले की अनमोल गुप्त विद्या का प्रसार आरम्भ किया था – “हजरत खवाजा बाकी विलाह साहब रहमतुल्लाह अलैहि” की समाधी (मज़ारे मुक़ददस) पर (कुछ चुने हुये) सत्संगियों के साथ हाजिरी दी |
आपने 16 जनवरी 1955 को बम्बई के लिए प्रस्थान किया | यह अजीब इत्तफाक था कि देहली से बम्बई के इस सफ़र में आप अकेले ही थे, आपके साथ कोई सत्संगी भाई नहीं था | आप प्रायः थर्ड क्लास में सफ़र करते थे परन्तु सत्संगी बन्दुओ के आग्रह पर यह यात्रा आपने इण्टर क्लास में की | जब एक भाई ने आपसे पूछ – “आप अब कब आयेंगे ?” आपने कहा – “जहाँ है हम वहाँ, जहाँ से आया न जाएगा |” जब गिरबर कृष्ण जी ने पुछा वह जगह कौन सी है ? आपने इसपर पर्दा डालते हुये कहा – भाई मैंने ऐसे ही कह दिया, जब मालिक की मर्ज़ी होगी तभी यहाँ हाजिरी होगी और मेरे का शेर पढ़ा |
“अब तो जाते है बुतकदे से मीर
फिर मिलेंगे ग़र खुदा लाया |”
रास्ते में मथुरा आगरा निवासी बहुत से सत्संगी बन्दुओ का हुजूम आपके दर्शनार्थ स्टेशन पर आया | पूज्य माता जी की बड़ी बहन जिन्होंने पिछले वर्ष आपसे दीक्षा ली थी, उन्हें अपने स्वप्न में मलाई खाने को कहा था तथा अपने लिये भी लाने को कहा था | अतः आप एक छोटे कटोरदान में मलाई लायी थी, गाड़ी जब चलने को हुई तब आपने उनसे पूछा – आप जो मलाई हमारे लिये लायी थी, उसका क्या हुआ | वे (माताजी की बहिन) आपको मलाई देना भूल गयी थी | अत: उन्होनेतुरांत वह कटोरदान आपको भेट किया | आपने उसे लेकर रख लिया | कहा कि हम रास्ते में खायेंगे | पूज्य माता जी के भाई, श्री चन्द्र प्रकाश जी व आत्मा राम जी भी आपको सफ़र में अकेला देख कर आपके साथ जाने की इच्छा जताई | आपने कहा – “कुछ सफ़र अकेले ही किये जाते है | इंशा अल्लाह जल्द ही वापस होंगे | आप सभी लोग अगले कार्यक्रम का इंतज़ार करे |”
गाड़ी जब चलने लगी तो आप डिब्बे के दरवाज़े पर खड़े होकर सभी बन्दुओ को हाथ हिला-हिलाकर आशीर्वाद देते रहे, जब तक गाड़ी आँखों से ओझल न हो गयी |
रास्ते में जबलपुर के भाई सभी ने आपका स्टेशन पर स्वागत किया | पूज्य सत्गुरुदेव महात्मा यशपाल जी भी वहाँ उपस्थित थे | वहाँ आपने सभी भाइयो की कुशलक्षेम पूची व अपना आशीर्वाद दिया | जब गाड़ी चलने लगी तभी पूज्य गुरुदेव महात्मा यशपाल जी महाराज को बड़े जोर से रोना आया | तभी आप देखकर चलती ट्रेन से कूद गये, ट्रेन भी अचानक ही रुक गयी, थोड़ी देर बाद पूज्य गुरुदेव अपने प्रिय शिष्य महात्मा यशपाल जी को अपना प्रेम भरा आशीर्वाद देकर गाड़ी में फिर से बैठ गये, तथा सभी बन्दुओ को हाथ हिलाकर गाड़ी के ओझल होने तक आशीर्वाद देते रहे |
गाड़ी 17 जनवरी 1955 को बम्बई बी०टी० स्टेशन पर पहुँची | जहाँ बहुत से भाई माला लेकर आपके स्वागत को उपस्थित थे | स्टेशन पर फूलो से सजी एक कार आपको ले जाने को लायी गयी थी | उसे देखकर आपने सजावट हटाने का आदेश दिया | जब सब फूल फटा दिये गये तब उसमे बैठकर मैरीन ड्राइव पर सेठ बालकृष्ण पदम चन्द्र (सेठ जी) के निवास पर पहुंचे | यहीं आपके ठहरने की व्यवस्था की गयी थी | सेठ जी का फ्लैट कई मंजिल ऊपर था | लिफ्ट के ख़राब होने के कारण थोड़ी देर इंतज़ार के बाद अपने सीढ़ियों से ही ऊपर जाने के लिये कहा | अधिक सीढिया फूलने पर आपकी सांस फूलने लगी | थोड़ी देर सुस्ताने के बाद आपको एक कमरे में जिसकी खिड़की समुद्र की तरफ खुलती थी आराम करने को ले जाया गया | आप लगभग आधा घंटे खुली खिड़की के जरिये समुद्र कामनोहरी दृश्य देखने लगे | फिर आपने बिस्तर पर आराम फ़रमाया | दोपहर को आपने सेठ जी को बुलाया और पूछा – आप मुझे क्या समझते है ? उन्होंने कहा – “आप मेरे लिये सब कुछ है | यह बताना कि आप मेरे लिये क्या है बुद्धि से परे की बात है |”
पू० दद्दाजी महाराज – फिर भी ?
सेठ जी – मै आपको अपने पिता के समान मानता हूँ |
पू० दद्दाजी महाराज – जानते हो पिता के प्रति पुत्र के क्या कर्तव्य है ?
सेठ जी – जी हाँ |
सायं 7 बजे बहुत से सत्संगी भाई सत्संग स्थल पर एकत्र हो गये | अधिकतर नये लोग थे | श्रीमान चाचाजी के नाती श्री नवीन चन्द्र मिश्रा भी थे | कुछ देर आन्तरिक ध्यान में रहकर आपने रामायण के प्रसंगों की चर्चा करनी शुरू कर दी तथा भगवान् श्री राम के कल्याणकारी कार्यो का वर्णन करते हुये भावावेश में फ़रमाया –
“ऐसी मिसाले रूहानी दायरे में बहुत कम है – देखिये भगवान् राम ने रावन को उसके अंतिम समय में उसको कितना ऊंचा आदर दिया- अपनी शक्ति लक्ष्मण जी को उससे उपदेश लेने भेजा और आदेश दिया, रावन नीति शास्त्र का बहुत बड़ा पंडित है, तुम जाओ और उससे उसके जीवन का निचोड़ पूछकर आओ – शत्रुभाव छोड़कर, जिस भाव से किसी से सीखा जाता है उसी भाव से उससे शिक्षा लो | ”
जब लक्ष्मण जी रावन के पास पहुँचे होंगे तो रावन का काला ह्रदय आपके तेजस्वी प्रभाव-नूर-से भर गया होगा | आपकी विशालता व अवतार पद का उसे उसी समय अनुभव हुआ होगा | उस अवस्था में जब उसका सब कुछ लुट चूका था, तो उसका ह्रदय भगवान राम की महानता का अनुभव करके उनके चरणों में फुदक कर आ गया होगा |
यह फरमाकर आपने चुटकी बजाकर तीन बार फर्माया कि “उसका दिल भगवान राम के कदमो में आ गया होगा |” यह कहकर आप चुप हो गये यही आपके अंतिम शब्द थे |
आपकी गर्दन कुछ नीचे झुक गयी थी | बहुत देर तक सभी उपस्थित सत्संगी बन्धु यही ख्याल करते रहे कि आप ध्यानावस्था में है | परन्तु आपका सफ़र परमपिता परमात्मा की गोद में जाने का शुरू हो गया था | कुछ समय बाद सत्संगी बंधुओ में चिंता जागने लगी | वहाँ कुछ डॉक्टर भी थे उन्होंने नब्ज़ देखकर कहा – “नब्ज़ नाड़ी नहीं है | आपको सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया गया | बड़े-बड़े डोक्टरो को बुलाया गया, उन्हीने कहा नब्ज़ व नाड़ी ठीक है, ह्रदय भी सही प्रकार चल रहा है, परन्तु हालत बहुत नाज़ुक है |“ लगभग नौ बजे यह खबर लखनऊ भेजी गयी |
खबर लखनऊ पहुँचते ही पूज्य ओंकार भाई साहब व पं० रघुनन्दन प्रसाद जी ने बम्बई श्री प्रेमचंद्र जी मित्तल जी से टेलीफोन पर बात की उन्हें बताया कि “नब्ज़ नहीं चल रही है | ह्रदय काम कर रहा है, कभी-कभी नब्ज़ वापस आ जाती है, उपचार चल रहा है, डॉक्टर न उम्मीद है | इस वक़्त पूज्य माताजी के अतिरिक्त कोई काम नहीं कर सकता है |”
एक बार ऐसी अवस्था आपकी पहले गायत्री बहिन जी की शादी के बाद हो गयी थी | तब पूज्य माता जी ने बुलन्द आवाज़ में कहा था “ऐसा नहीं हो सकता है |” और आपकी तरफ ध्यानावस्थित हो गयीं थी, लगभग दो घंटे बाद आप सामान्य अवस्था में आ गये थे | तब माता जी (धर्म पत्नी चच्चा जी महाराज) ने कहा था कि बुज़ुर्ग तुम्हे ऐसे ही मौको के लिये लाये थे |
इस घटना के आधार पर माता जी को बम्बई ले जाने के लिये एयर पोर्ट गये वहाँ से इत्फाकन दो रोज़ तक हवाई जहाज की कोई उड़ान न थी | बम्बई से लगातार संपर्क हो रहा था | तभी दो उच्च कोटि के महात्मा अरविन्द घोष आश्रम के, वहाँ पूज्यवर दद्दाजी महाराज से मिलने आये थे परन्तु वहाँ बदली हुयी हालत देखकर वे उनके शरीर के पास ध्यानावस्थित होकर बैठ गये, दो घंटे के ध्यान के बाद उन्हीने घोषणा की ऐसा संत फ़कीर हमने अपने जीवन में नहीं देखा | हमारी जहाँ तक पहुँच है, ये उससे बहुत आगे जा चुके है, वहाँ से वापस लाना हमारे लिये संभव नहीं है | हे प्रभो ! तेरी व तेरे भक्तो की महिमा विचित्र है | 18 जनवरी 1955 को शाम “आकाशवाणी” (रेडियो पर) समाचारों में यह समाचार भी प्रसारित किया गया था |
हवाई जहाज से व्यवस्था नहीं होने के कारण आपका शरीर रेल मार्ग से लाया गया | 19 जनवरी को यह समाचार देश के लगभग सभी अखबारों में प्रकाशित हो गया था |
21 जनवरी 1955 के “Pioneer” ने यह खबर निम्न प्रकार छापी –
“The life and death of Kabeer was enabled in a revised form when Hindus and Muslims claims. The last remains of saint to Hindus as “Swami Brij Mohan Lal” and to the Muslims as “Baba Shams-Uddin”.
The saint, it is claimed, was “Grahasth Sanyase” and also belongs to the ‘Naqsbandia’ System of sufies, His disciples and admirers were in the ranks of both communities.”
माताजी झाँसी आ गयी थी जब रेल बम्बई से झाँसी आयी तो आपके पार्थिव शरीर को देखकर आपके सब्र का बांध टूट गया, कई बार उन्हें दौरा पड़ा गया |झाँसी पर सत्संगी भाइयो ने डिब्बे को फूलो से भर दिया | रास्ते में इतने सारे लोग मिलते गये कि गाड़ी के हर डिब्बे में सत्संगी लोग ही भरे हुये थे | प्रातः गाड़ी 6 बजे कानपुर स्टेशन पर पहुँची, पूरा प्लेटफार्म सत्संगी भाइयो से भर गया | 20 जनवरी 1955 को यह गाड़ी लखनऊ पहुँची | सभी भाई विलाप करते हुये तथा जय-जय कार करते हुये आपके शरीर को घर निवास पर लाये | बड़ी दादी जी (धर्म पत्नी लाला जी साहब) आपके शरीर को देखकर रो पड़ी और आपसे कहा – “भैया तुमने अपना नाम पैदा कर लिया, बुजुर्गो का नाम रोशन कर दिया, मगर हम लोगो का ख्याल नहीं किया|”
अमीनाबाद का सारा बाज़ार बंद हो गया | सभी लोग आठ मील पैदल चलकर शमशान भूमि तक गये | रास्ते में किसी को भी एक बार या दो बार से ज्यादा कंधा लगाने का मौका न मिला | इस यात्रा में हिन्दु मुसलमान सब रोते बिलकते जा रहे थे, अजब समां था | शाम को सभी शमशान भैसा काण्ड पहुँच गये |
आपके शरीर को चिता पर रखा गया | कानपूर से तशरीफ़ लाये मौलाना साहब ने जो आपके भक्त थे, सभी के साथ नमाज़े-जनाज़ा पढ़वाई उसके बाद रामधुन हुयी | फिर वैदिक मंत्रो व दैवीय आवहान के साथ शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया |
परम पूज्य बृजमोहन लाल जी महाराज के जाने के बाद माताजी ने विलाप करते हुये नींद की अवस्था में स्वप्न सा देखा कि आपने उनके दरवाज़े पर दोनों हाथ से उनका रास्ता रोक रखा है | आप कहने लगे –
“हम औरो की बात नहीं करते, तुम ज़िन्दगी भर मेरे साथ रही हो, तुमको मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता | तुमको रोता देखकर मुझे आना पड़ा है | अच्छा यह बताओ कि क्या तुम भी मुझे मुर्दा समझती हो ? मै तुम्हारे लिये जिंदा हूँ, अभी बहुत काम है | इस काम में नये पौधों की हिफाज़त करना तुम्हारा काम है, मै तुम्हारे साथ हूँ, जब ज़रूरत होगी, तुम मुझे अपने पास पाओगे |”
माता जी ने उस दुःखद समय में भी इन शब्दों को कागज़ में लिख लिया और नित्य उसे पढ़ती थी | कुछ दिनों बाद आपने ख्वाब में देखा पूज्य पाद दद्दाजी महाराज समाधी से आकर कह रहे है | तुम को इस बुतपरस्ती की ज़रूरत नहीं है, तुम सिर्फ ख्याल से महब रहो |” इसके दो दिन बाद घर में चोरी हो गयी और वह कागज़ भी उसी में विलीन हो गया |
आप बेहद सादगी पसंद एवं आडम्बरो व चमक दमक से नफरत करते थे | आपका जीवन का प्रत्येक क्षण लोगो की सेवा व उनके दुःख दर्द को दूर करने में लगा रहता था | आपका जीवन चमत्कारों से भरा पड़ा था, परन्तु जाहिर न होने देते थे | आप जीवन में प्रेम व अदब को अन्य बुजुर्गो की भांति विशेष महत्व देते थे |
आप लोगो की इच्छाओ व आध्यात्मिक तरक्की के लिये संकोच न करते | अपने शिष्यों को केवल शब्दों से नहीं बताते थे | वे उन्हें पहले अनुभव करा देते तब बताते यह स्तिथि है |
आपकी पवित्र महा समाधि लखनऊ में मोहल्ला-तिलकनगर (ऐशबाग) में गूंगे बहरे के स्कूल के सामने हर खासो आम के वास्ते फैज़ (कृपा धार) की धार बहने का सरचश्मा (पवित्र झरना) है | जहाँ आज भी पुराने व नये सत्संगी भाई कृपा धार में स्नान कर स्वयं को धन्य समझते है, सच्चा आध्यात्मिक लाभ उठा रहे है |
ॐ शान्ति-शान्ति-शान्ति |