परम संत महात्मा राम चन्द्र जी महाराज

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Pujya Lalaji Maharaj


जन्म : 02 फरवरी 1873
समाधी : 14 अगस्त 1931

या इलाही फज़ल से दे, मुझको फ़ज़ले अहमदी |

“राम” फजली और “रघुवर” बाअता के वास्ते ||

“हे प्रभु संत सत्गुरु महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज एवं उनके भाई संत सद्गुरु महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज के वास्ते मुझको अपनी कृपा और दया प्रदान कीजिए|”

||परम संत समर्थ सद्गुरु महात्मा श्री रामचन्द्रजी (लालाजी महाराज, फतेहगढ़ी)||

उत्तर-प्रदेश में एक कायस्त परिवार के बाबु वृन्दावन साहब थे | जिन्हें सम्राट अकबर ने उनकी बहादुरी एवं कार्य-कुशलता से प्रसन्न होकर 555 पाँच सौ पचपन गांव की जागीर शाही खिलअत तथा चौधरी का खिताब अदा फ़रमाया था | आपने यहाँ जिला मैनपुरी में एक क़स्बा भूमिग्राम बसाया | बाद में इस कस्बे को भौगांव के नाम से जाना जाने लगा | इसी वंश में चौधरी श्री हरबक्शराय साहब हुये | सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इस कस्बे को लूट लिया गया और जान माल का खतरा पैदा होने पर चौधरी साहब भौगांव से फर्रुखाबाद आकर बस गए | यहाँ आप चुंगी के सुपरिटेंडेंट के पद पर नियुक्त हो गये | आपकी धर्मपत्नी निहायत सुशील, दयावान और रामायण की परम भक्त थी | बड़ी उम्र तक उनके कोई संतान नहीं हुई इससे वह अक्सर उदास हो जाया करती थी | धीरे-धीरे उनकी उदासी बढती गयी, भगवान् से प्रार्थना करती रहती थी |

एक दिन परम पिता परमात्मा की दया-कृपा से एक अवधूत संत आपके दरवाज़े पर आन पधारे, भोजन की इच्छा प्रगट करने पर उन्हें पूरी-सब्जी परोसी गयी, उन महात्मा ने जो़र का कहका लगाया और मछली खाने की इच्छा जाहिर की, यहाँ इन वस्तुओं के होने का प्रश्न ही नहीं था | आप यह सुनकर दूसरे मकान में गयी जहाँ आपके पतिदेव चौधरी हरबक्शराय जी का अलग भोजन बनता था | वहाँ पता चला कि कहीं से दो मछलिया पकाई गयी है | आपने दोनों मछलिया स्वयं तश्तरी में रखवाकर महात्मा जी को पेश की, जिन्हें उन्होंने बिना संकोच भोजन में ग्रहण किया | उचित अवसर देखकर नाईन ने जो सेवा में आपके पास रहती थी, महात्मा जी से निवेदन किया कि महाराज कृपा कर ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि हमारी बीबी जी साहिब के पुत्र-रत्न प्राप्त हो | यहाँ इश्वर का दिया सब कुछ है बस संतान नहीं है | उन कम्बलधारी अवधूत संत ने उच्च स्वर में इश्वर का आवाहन किया और बोले ‘एक’ और ’दो’ ये कहकर वह वहाँ से तेजी से प्रस्थान कर गये |

एक वर्ष के अन्दर ही इस उच्च कुल में परम संत महात्मा रामचन्द्र जी महाराज की दिव्य हस्ती ने 2 फरवरी 1873 को बसंतपंचमी के शुभ दिन को जन्म लिया | तथा 17 अक्टूबर 1875 करवाचौथ कार्तिक बदी 3 सं. 1932 को उनके लघु भ्राता परम संत महात्मा रघुवर दयाल जी महाराज अवतरित हुए |

दोनों भाइयो की उम्र लगभग 7 वर्ष व 5 वर्ष की थी उनकी माताजी का स्वर्गवास हुआ | माता का साया उठ जाने के बाद उनकी शिक्षा का बहुत अच्छा प्रबंध उनके पिता ने उनके लिए किया | लगभग 10 वर्ष की अवस्था में जनाब लाला जी साहब फर्रुखाबाद मिशन स्कूल में दाखिल हुए और वहाँ आठवी तक शिक्षा प्राप्त की | पूज्य चच्चा जी साहब केवल दो-तीन वर्ष ही मिशन स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर सके | उन्होंने उर्दू,फ़ारसी की शिक्षा घर में ही जनाब लाला जी साहब से प्राप्त की थी |

विद्यार्थी जीवन में आठवी तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद जनाब लाला जी साहब का विवाह एक अच्छे खानदान में कर दिया गया | शादी के थोड़े दिनों बाद ही उनके पिता का साया भी सर से उठ गया | अपनी जायदाद का बड़ा हिस्सा उनके पिता ने अपने जीवनकाल में ही बेच दिया था | राजा मैनपुरी से जायदाद का मुकदमा दुर्भाग्य से छिड़ गया जो राजा मैनपुरी के हक़ में होने से डिग्री की रकम चुकाने में बची जायदाद चली गयी तथा निजी मकान भी छोड़ना पड़ा और आप एक छोटे से किराय के मकान में रहने लगे | आमदनी का जरिया न होने से आर्थिक स्तिथि बिगड़ती चली गयी |

फतेहगढ़ के कलेक्टर साहब आपके पिता के पूर्व परिचित थे, उन पर बहुत मेहरबान रहते थे | जब उनको लाला जी महाराज की दयनीय दशा के बारे में पता चला तो उन्होंने लाला जी साहब को कलक्टरी फतेहगढ़ में नक़ल नवीस के पद पर दस रूपये मासिक पर रख लिया | कुछ दिनों बाद कलक्टर साहब ने चच्चा जी महाराज को भी रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर के पद पर लगवा दिया, जहाँ चच्चा जी महाराज का एक अशिष्ट अंग्रेज़ अफसर से झगड़ा हो गया आपने नौकरी छोड़ दी | इसके बाद चच्चा जी महाराज ने जीवन में कभी नौकरी नहीं की |

मौहल्ला नितगंज में घुमना बाज़ार के पास एक छोटे से मकान में सब रहने लगे | वहां जगह की कमी को देखते हुये जनाब लाला जी महाराज ने एक कोठरी मुफ़्ती साहब के मदरसे में अपने पढ़ने के लिए अलग से ले ली | इसी मदरसे में एक बड़े ही सिद्ध मुसलमान संत रहते थे जो बच्चो को पढ़ाया करते थे, इसी से अपना निर्वाह करते थे | उन्ही दिनों स्वामी ब्रह्मानंद जी गंगा के किनारे रेत  में रहते थे | जिनकी आयु उस समय 150 वर्ष की बताई जाती है, ये भी बहुत अच्छे सिद्ध महात्मा और सन्यासी थे | आप स्कूल के साथियो के साथ महात्मा जी के दर्शन को जाया करते थे | स्वामी जी और ये मुस्लिम संत एकांत में बड़े प्रेम से मिला करते थे | स्वामी जी इन्हें फर्रुखाबाद का सर्वोपरि संत “कुतुबेवक्त” बताया करते थे |

सन् 1891 में लालाजी साहब को फ़तेहगढ़ी कलक्ट्री में दस रूपए माहवार की नौकरी मिल गयी थी जिससे सब घर का निर्वाह होता था | फतेहगढ़ और फर्रुखाबाद के बीच की दूरी लाला जी साहब पैदल ही तय करते थे | आपके छोटी भाई चच्चाजी महाराज लगभग 16 वर्ष के थे | कुश्ती,कसरत व खेल की तरफ उनका विशेष ध्यान रहता था | आपके अपने सरल व हंसमुख स्वभाव से सभी प्रभावित हो जाते थे | आपने लालाजी महाराज से छिपकर तबला और पखावज भी सीखा और उसमे पारंगत भी हुये | लाला जी साहब के स्वाभाव में सादगी सद् व्यव्हारता, अदब व तहजीब, विनम्रता, शिष्टता नेकी व नर्म दिली, संजीदगी, सहनशीलता, मृदुभाषी और धीरता के गुण जन्म से थे | मनोवृत्तियों पर अधिकार, निर्धनता में कष्टमय जीवन यह इस बात का सूचक है कि आप जन्म से ही संत थे |

एक दिन नौकरी से लौटने में जनाब लाला जी महाराज को देरी हो गयी, उस दिन बरसात हो रही थी, बादल गरज रहे थे, इससे पूज्यपाद लाला जी साहब की दशा दयनीय हो गयी थी, उस समय जब आप अपनी कोठरी की तरफ जा रहे थे पूरे भीगे थे, शरीर ठण्ड से कांप रहा था |उस समय वह मुस्लिम संत भी मदरसे में अपनी कोठरी में बैठे थे यकायक उनकी नज़र आप पर पड़ी | उन संत साहब मौलाना फज़ल अहमद खां साहब, नक्शबंदी कुद्दूसुरूह की पवित्र और प्रेम भरी दृष्टि आप पर पड़ी, उन्होंने कहा – “इस तूफ़ान में और इस समय आना |”

पूज्य लाला जी महाराज कहा करते थे कि परम संत मौलाना साहब के इन शब्दों में बड़ी आकर्षण शक्ति थी, उन्होंने उसी समय झुक कर बड़े अदब से उन्हें सलाम किया | जरा सी आँख मिली थी कि सारी देह में पैर की ऊँगली से लेकर सर की चोटी तक ऐसी बिजली दौड़ी कि तन-मन की सुध न रही, ऐसा अनुभव होता था कि मानो एक दूसरी आत्मा ही मुझ में समा गयी हो | उन्होंने बड़े प्रेम से कहा – “बेटे भीगे कपडे बदलकर मेरे पास आओ फिर मेरे पास आकर थोड़ी देर आग से हाथ सेक कर घर जाना |” जब लाला जी साहब कपडे़ बदलकर पूज्य मौलाना साहब के पास पहुंचे तब उन्हें अपने पास चारपाई पर बैठा लिया और अपनी रजाई उन्हें ओढ़ा दी |

पूज्यपाद लाला जी साहब कहा करते थे कि उस समय तल्लीनता, प्रकाश और आनंद की वर्षा का इतना वेग था कि पानी की वर्षा और बिजली की चमक सब उसमे लुप्त जान पड़ती थी ह्रदय-कल्ब और दिमाग सारे तन में भीतर और बाहर लगातार एक हरकत हो रही थी, एक प्रकाशमय आनंद में ऐसा अनुभव होता था जैसे आत्मा ह्रदय और शरीर को अपने में लीं कर रही हो | आत्मा रूह सारी दुनिया को दूसरी ओर यानी मालिके कुल की तरफ खींचे चली जा रही हो, कभी-कभी ऐसा अनुभव होता था कि सारा शरीर पिघल-पिघल कर परमाणु रूप में नूरानी होकर बहता चला जा रहा है और वे बुक्कए-नूर(पूर्ण प्रकाश रूप) होकर रह जाते थे |

लगभग दो घंटे हुजूर महाराज के पवित्र चरणों में सत्संग का यह प्रथम अवसर था | जब वर्षा बंद हुयी तब पूज्यपाद लाला जी साहब घर को चले | आप कहते थे कि “हजरत किबला साहब की कोठरी से निकलकर ऐसा ज्ञात होता था कि पृथ्वी,आकाश सारे जीव-जंतु पेड़ आदि सब उसमे (उस नूत में) लीन थे और नाच रहे थे कल्ब और दिमाग के सारे आत्मिक चक्र जागृत हो रहे थे | यही नहीं, बल्कि इस देत देह और रूप में अब फ़कीर रामचन्द्र की जगह परम संत हुजूर महाराज मौलाना शाह फज़ल अहमद खां साहब नक्शबंदी मुजद्दीदी ही समाय हुये थे |”

आपने घर आकर भोजन नहीं किया और पूर्ण तेजस्वी लय अवस्था में गर्क होकर सो गये | लगभग चार बजे स्वप्न देखा कि एक बहुत बड़ी भीड़ है, बहुत से संत-महात्मा वली, औलिया वहां उपस्थित है | अकस्मात् एक तेजस्वी तख़्त वही उतरा और उस भीड़ के सामने एक अत्यन्त तेजस्वी और मन-मोहन पुरुष उसपर विराजमान हुये | इतने में हजरत किबला मौलाना फज़ल अहमद खां साहब कुद्दुसुरूह ने बुत अदब के साथ तेजस्वी तख़्त पर विराजमान तेजस्वी पुरुष के सामने आपने उनको (पूज्यपाद लाला जी साहब) को प्रस्तुत किया | उस तेजस्वी महापुरुष ने उन्हें अपनाया और कहा – “तेरा जीवन का भटकाव सत्यता की ओर जन्म से ही है |”      

पूज्यपाद लाला जी साहब ने यह स्वप्न हुजूर महाराज को बताया इस पर हुजूर महाराज रो पड़े और कहा कि “सचमुच तुम्हारे जीवन का रुझान जन्म से ही सत्यता की ओर जान पड़ता है |”

आपका विचार था कि गिरे हुये जीवो और भूले भटके दु:खी संसारी जनो को उठाया जावे | आपका मानना था कि जब तक लोगो की भीतरी दशा नहीं सुधरेगी, आत्म शक्तिया उभर कर जागृत न होंगी, उनमे मनोशक्ति फिर से उत्पन्न न होगी, न फलेगी फूलेगी, जब तक बुद्धि की सफाई होकर वह तीव्र न होगी तब तक केवल पूजा-पाठ और उपरी उपासना से मनोरथ प्राप्त न होगा और बंधे हुये जीव  जैसे है वैसे ही बने रहेंगे |

इसलिए आपने इस पर जोर दिया कि जहां तक बन पड़े अभ्यास किया कराया जावे और उसी के साथ-साथ धर्म सम्बन्धी सिद्धान्तों, उसूलों और हिदायतों का पालन करते हुये, यम नियम और उचित, अनुचित ढंगों व कर्मो पर ध्यान रखकर अपने अख़लाक़ को सुधारा जावे | आन्तरिक अभ्यासियो का सत्संग सदा किया कराया जावे तो भीतरी और बाहरी उन्नति संभव है | इसके अतिरिक्त यदि दुनिया और दुनिया के उन संप्रदाय और पन्थो की नक़ल उतारी जायेगी जो केवल नकली बनकर पुस्तकों से पुराने महापुरुषों का इतिहास सुन सुनाकर संतोष कर लेते है और किसी तरह का आंतरिक अभ्यास नहीं करते है, जिनका सत्संग केवल थोड़ी देर का किताबे पढना व भजन-कीर्तन से जी बहलाना है तो फिर सत्य की प्राप्ति कोसो दूर है |

एक दिन की बात है पूज्यपाद लाला जी साहब हुजूर महाराज सत्गुरुदेव के साथ शहर फर्रुखाबाद से फतेहगढ़ वाली सड़क पर टहलते हुये जा रहे थे | रास्ते में अपने दुःख दर्द और गरीबी की बात अपने गुरुदेव से करते जा रहे थे, अचानक सत्गुरुदेव महाराज के ह्रदय में दर्द और दया का भाव उमड़ आया और अकस्मात पूज्य लाल जी साहब पर दाहिना हाथ रखकर बड़ी सफकत से बोले कि – “भई बड़े होनहार हो, भाग्यशाली हो | परमपिता के कृतज्ञ हो कि तुमने बहुत सस्ते दामो में यह सबसे बड़ी दौलत प्राप्त कर ली, जिसका कोई मोल नहीं हो सकता |”

यह कहते हुए हुजूर महाराज, पूज्य लाला जी साहब के साथ तुरंत लौट पड़े | पूज्यपाद जनाब लाला जी साहब फरमाते थे कि “जिस समय तक हम पुलिया तक अपनी दुःख भरी कहानी कहते जा रहे थे, वे चुपचाप सुनते जा रहे थे, उस समय तक हमारे साथ दुनिया थी लेकिन जैसे ही लौटे तो कुछ हुजूर महाराज ने लौटने या लौटने के लिये घूमते हुये कहा था उसके अतिरिक्त दुनिया विलीन थी केवल दीन और उकबा (परलोक) कायम था | सब चिन्ताये और दुःख साफ़ हो गये थे | मानो सारा भार किसी ने सदा के लिये उठा लिया हो | अपने में दूसरी अनंत शान्तिमय प्यारी हस्ती का प्रवेश होना अनुभव हुआ |यह दूसरी गजब की अनमोल सहायता और ठोकर थी |”

हुजूर महाराज प्रायः कहते थे कि प्रिय रामचन्द्रजी ऐसे विनयशील है कि आज तक इस फ़कीर को कोई ऐसा अवसर नहीं मिला कि उनसे कभी नाराज़ तक होता | उनका अदब, तहज़ीब, अख़लाक़, शुद्ध-प्रेम, सेवा और इसार के प्रभाव ने पहले से ही इस संत के मन को मोह लिया है | सच है –“होनहार बिरवान के होत चीकने पात” क्यों न हो ये तो जन्मजात संत है |

23 जनवरी 1896 को शाम पांच बजे के शुभ समय पर हुजूर महाराज ने पूज्यपाद लाला जी साहब को लौकिक रूप से अपना लिया और पूज्य लाला जी साहब ने परम सौभाग्य से दीक्षा हासिल की | उसके दस माह उपरान्त ही 11 अक्टूबर 1896 को हुजूर महाराज ने आपको पूर्ण अधिकार-इजाज़त खिलाफत-प्रदान करके गुरु पदवी पर बैठाया |

सन 1896 के अंत में जनाब लाला जी साहब की बदली तहसील अलीगढ (जिला-फर्रुखाबाद) को नायब नाजिर की जगह पर हो गयी और उसके बाद तहसील कायमगंज और फतेहगढ़ हो गयी तो गृहस्थ में रहकर गुप्त रूप से आध्यात्म मार्ग की शिक्षा जिज्ञासुओ और संसारियो को दिया करते थे |

अपने शरीर छोड़ने से एक दिन पूर्व हुजूर महाराज (मौलाना फज़ल अहमद खां साहब कुददुसुरुह) ने जनाब लाला जी साहब से फ़रमाया था –

“क्यों गम करते हो? मै तो तुम्हारे सब के वास्ते अब बिल्कुल आजादाना तौर पर जिंदा हो रहा हूँ | अब तक जिस्मानी पर्दा भी रहता था, फिर बिल्कुल निकट हो जाउंगा | देखो ! मेरे बाद अपने (गुरु चाचा), हजरत किब्लाशाह अब्दुल गनी खां साहब को मेरी बजाय तुम सब लोग समझना और मुझे पूरी उम्मीद है कि ये भाई भी तुमसे ऐसी ही मोहब्बत से पेश आयेंगे |”

जनाब लाला जी साहब ने अपने इन गुरु चाचा की अपने हुजूर महाराज की तरह ही अदब व इज्जत एवं आदर भाव जीवन भर रखा |

एक दिन जनाब लाला जी साहब अपने छोटे भाई पूज्य रघुवरदयाल जी साहब के साथ गुरु दर्शन कर वापस आ रहे थे तो रास्ते में ओले-पानी के साथ तूफ़ान आया | वहाँ छिपने की जगह न थी जनाब लालजी साहब ने चच्चाजी महाराज को गुरुदेव का ध्यान कर बैठने को कहा इसपर दोनों भाई वहीं पर बैठकर आंख बंद कर गुरुदेव का ध्यान करने लगे जब सब कुछ थम गया तो ध्यान टूटा | देखा जिस जगह आप दोनों बैठे थे वहाँ सूखा थ बाकी जगह बरसात हुयी थी | आपने ये वाकया गुरुदेव महाराज को बताया उन्होंने कहा –“ईश्वर मालिक है वह क्या नहीं कर सकता, तुम पर ईश्वर की कृपा है |”

एक बार जनाब लाला जी साहब व पूज्य चच्चा जी साहब अपने गुरुदेव के दर्शन कर वापस लौट रहे थे तब समय अधिक हो जाने के कारण अंधेरा हो गया | रास्ते में जंगल पड़ता था | जंगल में जब उन्हें कुछ डर लगा तो देखा कि गुरु महाराज हाथ में लालटेन लेकर आ गये और अपने पीछे-पीछे आने को कहा और जब देखा कि बस्ती आ गयी है और कोई डर नहीं रहा है तभी गायब हो गये | जब अगले रोज़ दर्शन को गये तब यह घटना उन्होंने अपने गुरुदेव को सुनाई | इस पर वह बड़े प्रसन्न हुये कहा कि परमात्मा की तुम पर बड़ी कृपा है तुम बड़े भाग्यशाली हो | परमात्मा जिसे खुद रास्ता दिखाये उससे बड़ा भाग्य क्या हो सकता है | ईश्वर किसी भी रूप में कहीं भी आ सकता है |   

लाला जी साहब ज्ञान की मूर्ती थे, चच्चा जी साहब प्रेम की, दोनों एक सिक्के के दो पहलू थे | उनके पास बैठकर प्रेमी-जन को आत्म अनुभूति प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगता था |

एक बार एक साधक जो गुरु पूर्णता को प्राप्त नहीं थे | अभ्यास के समय जब आज्ञाचक्र खुलता है उस समय जो भी जज्बा उस आन्तरिक जज्बे के समय उसमे मिल जाता है तो पूरी शक्ति उस दिव्य रूप में उस कार्य की वासना में बदल जाती है और रोकथाम कठिन हो जाती है | इन साहब की जब यह स्तिथि आयी तब काम-वासना उस आन्तरिक जज्बे में बैठ गयी | इस कारण वे पराई स्त्रियों को पकड़ने दौड़ पड़ते थे, उनको किसी प्रकार की लज्जा नहीं आती थी, इस कारण वह जंजीरों में जकड़ कर रखे जाते थे | इन साहब के चाचाजी कायमगंज में पूज्य लाला जी साहब के साथ तहसील में कार्यरत थे | उन्होंने लाला जी साहब को यह बात बताई | पूज्य लाला जी साहब उनको पूज्य मौलाना साहब के पास ले गये |इस पर हुजूर महाराज ने फ़रमाया कि “उस बिचारे की इतनी भूल अवश्य है कि एक नाकिस और नामुकम्मिल पीर से बैत ली है, जो इस स्थान से निकलने की योग्यता व शक्ति और साहस व हिम्मत नहीं रखते है |”

पूज्य हुजूर महारज ने पूज्य लालाजी महाराज को समझाकर उस पागल व्यक्ति को तवज्जो देने को कह दिया | लाला जी साहब ने अपने गुरुदेव की आज्ञा से उस व्यक्ति को लगभग दो सप्ताह लगातार तवज्जो दी और वह व्यक्ति पूर्णतः ठीक हो गया | उसने हुजूर महाराज से प्रेम व आदर के साथ शिक्षा ली व वैसा हासिल कर सच्चे रास्ते लग गया |

इसके बाद लाला जी महाराज की बदली कायमगंज से फतेहगढ़ कलेक्ट्री में हो गयी | यहां आपने एक छोटा सा घर तलैया में किराए पर ले लिया | यहीं आप थोड़े से लोगो को गुप्त रूप से सत्संग में बिठा लिया करते थे |

आप कहते थे “गृहस्थी से अच्छी कोई जगह नहीं है, जहां अपने मालिक का प्रेम पुजारी दूसरे संसारी मनुष्यों से छिप कर रह सके क्योंकि गृहस्थ में रहकर, सब की भांति दुनियादारी के तरीके पर रहनी सहनी रखनी ही पड़ेगी | सब की भांति सुख दुःख उठाना ही पड़ेगा और दूसरे लोग उनको परेशान न करेंगे | ”

एक समय महात्मा पूज्य बृजमोहन लाल जी को ऐसी अवस्था प्राप्त हो गयी कि वे आने वाली घटनाओं को जान लेते थे | सामने वाले व्यक्ति की मन की बातों को जान लेते थे | ऐसा होने पर वे सोचने लगे कि उन्होंने बड़ा कमाल हासिल कर लिया है | एक दिन जब वह महात्मा जी (लाला जी महाराज) साहब के सत्संग में बैठे थे महात्मा जी कुछ सोच-विचार में थे कि वे बृजमोहन लाल जी महाराज यकायक उठकर चले गए और हजरत परम संत मुजद्दिद साहब के पत्रों की पुस्तक लाकर उसी विषय से सम्बन्धित पत्र लाकर लालाजी महाराज की सेवा में पेश कर दिये |

महात्मा जी ने वे पत्र बड़े गौर से पढ़े और कुछ देर तक महात्मा बृजमोहन लाल जी को घूर कर देखा फिर किताब ले जाकर सन्दूक में रख दी, तुरंत वहाँ से चल दिये और बृजमोहन लाल जी महाराज को हुक्म दिया यहां हमारे पास आओ | आपकी आँखों में गैर मामूली रूख देखकर महात्मा बृजमोहन लाल जी महाराज वापस गए आप डरे-डरे लाला जी महाराज के साथ-साथ ऊपर चले गये | ऊपर जाकर महात्मा जी खाट पर बैठ गये और श्री बृजमोहन लाल जी से फ़रमाया जनाब किस हाल में रहते है, जिस हाल में आप है क्या आप उसे कमाल समझते है ? क्या हमारे दिल का हाल जान जाने से अपने को बड़ा अनुभव वाला होना और वा कमाल समझते है ?”

इस पर महात्मा बृजमोहन लाल जी ने रो-रो कर सारा हाल साफ-साफ निवेदन कर दिया और कहा कि महाराज जी केवल यही नहीं यदि कहीं ढकी हुयी या बंद चीज़ कहीं रखी हो और यह उधर दिल ले जावे तो वह भी खुली और स्पष्ट नज़र आती है | महात्मा जी यह सब सुनकर रो पड़े और बोले राम-राम तुम तो एक बड़े खतरनाक मकाम पर जा पहुंचे हो, जहां से निकलना अपने आप हर एक के बस की बात नहीं है, आज न तुम हमारा अनुभव करते न हमारा माथा तुम्हारी तरफ से ठनकता | सुनो जिसे तुम कमाल समझ रहे हो वह माया के धोंक की टट्टी है | जो रूहानी कमाल का पहलू दिखाकर तुम्हे अपने आधीन करके पटक देती |

महात्मा जी एक डिप्टी मजिस्ट्रेट की पेशकारी पर काम कर रहे थे | आपने रात्री को सत्संग के समय पर यह बता दिया था कि एक मुक़दमे में एक ही घर के दो व्यक्ति किसी जायदाद के सम्बन्ध में लड़ रहे थे | दोनों ही पक्ष चाहते थे कि मुक़दमे का फैसला उनके हक़ में हो जाता | दोनों जनो को सुबह घर पर अलग-अलग समय पर बुलाया | एक जने 7 बजे सुबह ही आ गये और उन्होंने 100/- रूपए महाराज जी को पेश किये | दूसरे साहब साढ़े सात बजे उन्होंने भी महात्मा जी को 150/- रूपए पेश किये | महात्मा जी ने पहले आने वाले व्यक्ति को अलग बैठा दिया था | फिर दोनों को बैठाकर समझाया तथा उनके रूपए उन्हें वापस देकर आपस में समझौता करने को कहा | लालाजी साहब की आज्ञा मानकर दोनों ने अदालत में राजीनामा कर लिया | तथा डिप्टी मजिस्ट्रेट से लाला जी महाराज की प्रशंसा भी की | यह जानकार वे डिप्टी मजि० साहब बड़े प्रसन्न हुये तथा लाला जी महाराज के व्यवहार एवं कार्य की बड़ाई कलक्टर साहब से की |

पूज्यपाद लाला जी साहब सन् 1896 ई. से अप्रैल 1903 ई० तक तहसील अलीगढ के नायब नाजिर के पद पर रहे | पशु-गृह (मवेशी-खाना) की देखभाल का कार्य भी आप ही करते थे | आपके समय में मवेशी खाने में कोई पशु भूखा-प्यासा न रहा | सरकार से मिलने वाले खर्चे में से एक पैसा इधर-उधर नहीं होने देते थे | कभी-कभी अपने पास से भी पैसा लगाकर चारे की व्यवस्था कराते थे | मवेशीखाने की किसी मवेशी का दूध घर पर नहीं लाते | आपके व्यवहार,सदाचार,इश्वर भक्ति की सभी बड़ी प्रशंसा करते थे |

एक दिन कुछ पुरुष और स्त्रियाँ सत्संद एवं दर्शन के लिये महात्मा रामचन्द्र जी की सेवा में कानपुर (कांग्रेस अधिवेशन के समय) पधारे | जब आन्तरिक सत्संग समाप्त हो गया, तब कुछ पुरुष व स्त्रियों ने एक छोटी से थाली को महात्मा जी की आरती उतारने के लिये सजाया तथा कपूर जलाकर अचानक दूसरे कमरे में आकर महात्मा जी की आरती उतारने लगे, महात्मा जी यह देखकर वहाँ से तुरंत उठकर चल दिये | उठते समय बड़े दुःख के साथ नेत्रों में जल भर लाये और कहा कि “राम-राम आप सब इसके गिरने व पतन होने का प्रबंध कर रहे है ? हमारे तरीके में गुरु जन अपनी आरती पूजा आदि कुछ नहीं कराते है | हमारे गुरुजनों ने ऐसी बातें व् चरणामृत आदि रस्में रखने को मना किया है |”

सन् 1931 ई. में ईस्टर की छुट्टियों में अन्तिम भंडारा हुआ | भण्डारे के बाद से पूज्यपाद लाला जी का स्वास्थ निरंतर गिरता जा रहा था | जून 1931 में लाला जी महाराज श्री कृष्ण सहाय जी के पास सिकंदराबाद पधारे जिन्होंने आपको इलाज के लिए दिल्ली के डाक्टरो को भी दिखाया | जहां डाक्टरो ने जिगर का फोड़ा होना बताया जो लाइलाज मर्ज था | वहां से वे फतेहगढ़ आ गये | आपको इस मर्ज ने चलने-फिरने से मजबूर कर दिया था तथा आप अत्यधिक कमज़ोर हो गये | तब आपका इलाज लखनऊ कराया गया परन्तु दर्द बढ़ता गया तथा बर्दाश्त के बाहर हो गया | जनाब पूज्य पाद लाला जी साहब ने फर्माया कि “जब तक मालिके-कुल की तरफ से आये हुये सारे आराम व कष्ट एक से प्यारे व भले न जान पड़े, तब तक सच्चे प्रेम की पहचान ही नहीं हो सकती है | कष्ट, मुसीबत, जिल्लत वगैराह पर मालिक की इच्छा व मर्ज़ी समझ कर, राजी हो जाना |”

   लखनऊ से आपको कानपुर लाया गया जहां प्रोफेसर राजेंद्र कुमार जो आपके प्रिय शिष्य थे के पास टब बाथ का इलाज कराया गया, परन्तु फायदा नहीं हुआ | पेट की सूजन सीने से लेकर नीचे पेडू तक व् जांघो तक पहुँच गयी | हालत चिंताजनक हो गयी | आपकी इच्छानुसार कानपुर के वैद्य छोटेलाल को दिखाया गया वे बड़े तजुर्बेकार माने जाते थे | जब उन्होंने जनाब लाल जी साहब को देखा तब उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया कि “मुझे अब बुलाया है अब अंत समय बिल्कुल निकट है, मर्ज असाध्य हो चुका है |”

पूज्यपाद लाल जी साहब के कानो में ये शब्द पड़ गये | आपने तुरंत ही फर्माया “वैद्यजी को यही खबर नहीं है कि मौत उनके सर पर खड़ी है, हमें अंत समय की क्या खुशखबरी दे रहे है | यह सेवक तो स्वयं जान रहा है और ख़ुशी से ईमान रखकर इस द्वार से गुजरने को तैयार है |” होनी होकर रहती है, वैद्य जी घर गये नहाधोकर चारपाई पर लेटे तो लेटे ही रह गये | आपकी इच्छानुसार आपको फतेहगढ़ लाया गया तथा गंगादत्त वैद्य जी आपके घोर विरोधी थे को इलाज के लिये बुलवाया | अपने बुलावे की सुनकर वैद्यजी सकते में आ गये, फिर ये कहकर कि प्रभु तेरे भक्तो की लीला विचित्र है आगे और इलाज शुरू कर दिया जो अंत समय तक चलता रहा |

अपने स्वर्गवास के तीन दिन पहले पूज्यपाद लाला जी साहब को दु:खी देखकर उनके गुरु भाई श्री कालका प्रसाद जी ने उनसे पुछा कि ”महाराज किस बात से दु:खी है क्या चिंता है |” पूज्यपाद लाला जी साहब ने फर्माया “एक बेवा स्त्री के 500/- रूपए हमसे खर्च हो गये है, मालिक से यही प्रार्थना करता हूँ कि वे अपनी दया व कृपा से कर्जदार छोड़कर न उठाये, बस यही दुःख बाकी है |” इस पर तुरन्त ही प्रनोट की शक्ल में एक कागज़ लिखा गया, जिसपर पूज्य बृजमोहन लाल जी व महात्मा जगमोहन नारायण जी ने हस्ताक्षर किये कि वे यह रूपया अदा करने के जिम्मेदार है | बाद में यह रूपया अदा भी कर दिया गया |

पूज्य पाद लाला जी साहब ने 23 अक्टूबर 1930 को एक वसीयतनामा चुपचाप लिखकर बांधकर रख दिया था | उन्होंने यह वसीयतनामा श्री राम प्रसाद जी को पढ़कर सभी उपस्थित लोगो को सुनाने को कहा – जो इस प्रकार था –

वसीयतनामा

“अल्लाह पाक हमारी नियतो को दुरुस्त फरमाते और हमारा अंजाम हमारे पेशवाओ और पिराने उज्जाम के तरीके पर उनके एत्कदात के साथ हो |”

आमीन ! आमीन !! आमीन !!!

ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं है | न मालूम किस वक़्त सांस वापस न आये | इसिलिये चंद बातें बतोर वसीयत के एहतियातन लिखकर इस उम्मीद पर छोड़ता हूँ कि मेरे बाद मेरी सुल्वी व रूहानी औलाद, अगर अल्लाह तआला उनको तौफीक और हिम्मत अता फरमाये तो उस पर कारबंद हो और तौफीक सिर्फ उसी के हाथ में है |

फकीर रामचन्द्र
(दस्तखत)
अक्टूबर सन् 1930

  1. पहले जज्ब और उसके बाद सुलूक के तरीके को तय करके तकमील के दर्जे तक पहुंचना चाहिये और यह काम तुम्हारे मुर्शद से सही निकलेगा | काश ! अगर तुमको मौका न मिले तो जब और जिस वक़्त इम्दारे-गैवी तुम्हारी तबियत को उभारे तो फिर तुम्हारे भाई बृजमोहन लाल (अल्लाह ताला उसकी उम्र में बरकत फरमाना) से ज्यादा शिफकत करने वाला नहीं मिलेगा | लाजिम है उसकी इतायक में फर्क न करना और दिल व जान से लगकर इस तरीके की तकमील हासिल कर लेना | मुझको भरोसा है कि वह अजीज तुम्हारे वास्ते कोई कसार नहीं रखेंगे |
  2. जहां तक मुर्शदाई व मौलाई जनाब किब्ला का इशारा मुझे दिया गया, मेरी औलाद में बर्खुरदार जगमोहन का पैदायशी अख़लाक़ दुस्स्त है और लतीफए में से लफकिए-कल्ब कल्ब अज तालीम ही जाकिर है | लेकिन मेरी दानिस्त में जज्ब की जेहत उसकी नातमाम है | उसको हासिल करना चाहिये | बहवी अख़लाक़ और कसबी अख़लाक़ में फर्क है | बहबी में ज्यादा तालीम और तलकीन की ज़रूरत नहीं होती बरखिलाफ इससे कि कसबी में बुत तजुर्बो और मशक्कतो के बाद वह बात नसीब होती है | जिसमे अंदेशा गिरावट का भी रहता है | अल्ह्मद-लिल्लाह कि वेहबी अख़लाक़ के लिये विशारत हजरत किबला ने फर्माया | पीराने उज्जाम के तुफैल में अल्लाह पाक इस नेमत के साथ उसका अंजाम बखैर फरमावे | अजीज मजकूर शुक्राना इस नेमत का अदा करते रहे और अपने आप को हमेशा आजिज समझे क्योंकि नेमत का देने वाला मुख्तार है कि जब चाहता है, अपनी दी हुयी नेमत को वापस ले सकता है |
  3. इस अजीज फकीरे में फाल्सफा और मुख्तलिक मजहबों के अकी दो को जहां तक मेरे इल्म ने मुझको इमदाद की छानबीन की है, लेकिन आखिर को पीराने उज्जाम के एतकादों और तरीको को ऐसा पाया है कि जिस पर मजबूती के साथ कायम रहने से आखिरी दम तक सलामती की उम्मीद है |

मै कह सकता हूँ कि इस वक़्त तक उन तरीको और एतकादों का पूरा पाबंद जैसा कि चाहिये नहीं रहा हूँ | लेकिन दिल में इकरार ज़रूर रहा है | अफ़सोस है कि एहबाब और मेरे साथ चलने वालो में एक शख्स ने भी ऐसी हिम्मत नहीं की इस एतकादों को कबूल भी करता और इकरार भी करता |

इसमें कसूर सरासर मैंने अपना पाया कि अब तक तहरीरी बयान एतकादों का उनके रू-बरू नहीं रखा, हालांकि जुबानी हमेशा और मौके-मौके पर जिक्र करता रहा हूँ |

मालूम नहीं किन-किन एहबाब ने उन को क़ुबूल किया और मंजूर किया |

जाहिर है-औलाद ताकत और कदो-कामत में अपने बुजुर्गो से नस्लन बाद नस्लन कमज़ोर ही होती चली आ रही है | इसी तरह रूहानियत और अखलाकी बातों में भी रोज़मर्रा गिरावट हो सकती है | मगर यह कायदा कुल्लिया नहीं है अल्लाह तआला की कुदरत महदूद नहीं है | जब चाहे कभी ऐसा जवां मर्द कमज़ोर माँ-बाप से पैदा हो सकता है जैसा कि पाच सौ बरस पहले हुआ हो |”

जिस समय यह वसीयतनामा पड़कर सुनाया गया तब अपनी उम्रदराज़ की प्रार्थना सुनकर परम पूज्य बृजमोहन लाल जी भाव-विभोर हो मूर्छित से हो गये | जनाब लाला जी साहब ने फर्माया “अभी से ये हाल है आगे भगवान मालिक है तुम्हारे ऊपर बड़ा बोझ छोड़ रहा हूँ, तुम्हे देने को हमारे पास जिल्लत, मुसीबत, नादारी, कष्टों के अलावा कुछ नहीं है | ये हमारी उम्र भर की कमाई व दौलत है, जो हम इस वक़्त तुम्हे दे रहे है | पीराने उज्जाम, नामों व तरीको तथा आदेशों को बदनाम न होने देने की कोशिश सदा करते रहना |”

फिर पूज्यपाद लाला जी साहब ने पूज्य दद्दाजी महाराज को इशारो से अपने करीब बुलाकर कहा कि हमने ये छातिया इसलिए दूध-पिला-पिलाकर खुश्क की है कि इस समय तुमसे उम्मीद है कि अपनी रूहानी तवज्जोह से उसी ढंग से काम करते रहोगे जैसा कि मैंने खुद व हजरत गुरु चाचा जी ने तुमको भली-भांति बाते व अनुभव कराया है |

उसके कुछ देर बाद ही पूज्यवर लाला जी साहब समाधि अवस्था में चले गये | आपकी यह अवस्था ऊपर से ज्ञात होती थी कि दाहिना हाथ नीचे से उठकर स्वयं ही सीधा सिर पर तालू पर होता हुआ चोटी के स्थान तक जाता था, वही रक जाता था | वह हाथ फिर धीरे से अपनी जगह पहुंचा दिया जाता था | पंडित गंगादत्त वैद्य जी पूज्यपाद लाला जी साहब की यह हालत देखकर फूट-फूटकर रोने लगे और व्याकुल होकर कह रहे थे कि सचमुच ये बहुत बड़े संत थे, महात्मा थे | हाय ! ये कितना अभागा है कि जाति पांत के मान-बड़ाई के भेदभाव से यह अपने अमूल्य जीवन को यूं ही खोता रहा और अपना नुकसान किया” वैद्य जी रो-रो कर पूज्यपाद के चरणों में सर रखकर पश्चाताप करते रहे |

समाधि अवस्था में पूज्यपाद लाला जी साहब 14 अगस्त 1931 दिन शुक्रवार को लगभग दोपहर दो बजे से रात्री के लगभग एक बजे तक रहे | महात्मा बृजमोहन लाल जी साहब उनका सर अपनी गोद मे रखे हुये तवज्जोह की हिम्मत बांधकर वैसी ही सेवा करते रहे | अंत में रात्री एक बजे पूज्य लाला जी साहब ने निर्वाण पद प्राप्त किया | उस समय कमरे में सभी लोगो को अचानक ऐसी डुबकी लगी कि निर्वाण का किसी को भी पता न चला | 15 अगस्त 1931 ई. को सुबह आठ बजे आपका अंतिम संस्कार गंगा तट पर किया गया |

बाद में उनके पुष्प लाकर नवदिया में कानपुर रोड पर रखकर समाधी की स्थापना की गयी, जो आज भी सभी प्रेमी भक्तो के लिए तीर्थ स्थान है |

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: